Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 15
________________ 4 जैनविद्या 26 (2) सूत्रपाहुड सत्ताईस गाथाओं में निबद्ध इस पाहुड में अरहंतों द्वारा कथित, गणधर देवों द्वारा निबद्ध, वीतरागी नग्न दिगम्बर सन्तों की परम्परा से समागत सुव्यवस्थित जिनागम को सूत्र कहकर श्रमणों को उसमें बताये मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी गई है ( 1 ); जिस प्रकार सूत्र (डोरा) सहित सुई खोती नहीं है, उसी प्रकार सूत्रों (आगम) के आधार पर चलनेवाले श्रमण भ्रमित नहीं होते, भटकते नहीं हैं (3)। सूत्र में कथित जीवादि तत्त्वार्थों एवं तत्संबंधी हेयोपादेय संबंधी ज्ञान और श्रद्धान ही सम्यग्दर्शन है। यही कारण है कि सूत्रानुसार चलनेवाले श्रमण कर्मों का नाश करते हैं। सूत्रानुशासन से भ्रष्ट साधु संघपति हो, सिंहवृत्ति हो, हरिहर-तुल्य ही क्यों न हो; सिद्धि को प्राप्त नहीं करता, संसार में ही भटकता है ( 8 ) । अतः श्रमणों को सूत्रानुसार ही प्रवर्तन करना चाहिए। जिनसूत्रों में तीन लिंग (भेष) बताये गये हैं; उनमें सर्वश्रेष्ठ लिंग नग्न दिगम्बर साधुओं का है, दूसरा लिंग उत्कृष्ट श्रावकों का है और तीसरा लिंग आर्यिकाओं का है। इनके अतिरिक्त कोई भेष नहीं है जो धर्म की दृष्टि से पूज्य हो । साधु के लिंग (भेष) को स्पष्ट करते हुए आचार्य कहते हैं - जह जायरूवसरिसो तिलतुसमेत्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं । । 18 ।। - जैसा बालक जन्मता है, साधु का रूप वैसा ही यथाजात (नग्न) होता है। उसके तिल-तुषमात्र भी परिग्रह नहीं होता। यदि कोई साधु थोड़ा-बहुत भी परिग्रह ग्रहण करता है तो वह निश्चित रूप से निगोद जाता है। स्त्रियों के उत्कृष्ट साधुता संभव नहीं है, तथापि वे पापयुक्त नहीं हैं, क्योंकि उनके सम्यग्दर्शन, ज्ञान और एकदेश चारित्र हो सकता है ( 25 ) । इस प्रकार सम्पूर्ण सूत्रपाहुड में सूत्रों में सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी गई है।

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