Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 17
________________ 6 जैनविद्या 26 (5) भावपाहुड भावशुद्धि पर विशेष बल देनेवाली एक सौ पैंसठ गाथाओं के विस्तार में फैले इस भावपाहुड का सार संक्षिप्तरूप से इस प्रकार है - बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है, परन्तु रागादि अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य त्याग निष्फल ही है (3)। क्योंकि अंतरंग भावशुद्धि बिना करोड़ों वर्ष तक भी बाह्य तप करें, तब भी सिद्धि नहीं होती (4)। अतः मुक्तिमार्ग के पथिकों को सर्वप्रथम भाव को ही पहचानना चाहिए (6)। हे आत्मन्! तूने भावरहित निर्ग्रन्थ रूप तो अनेक बार ग्रहण किये हैं (7), पर भावलिंग बिना-शुद्धात्मतत्व की भावना बिना चतुर्गति में भ्रमण करते हुए अनन्त दुःख उठाये हैं (8)। नरकगति में सर्दी, गर्मी, आवासादि के; तिर्यंचगति में खनन, ज्वलन, वेदना व्युच्छेदन, निरोधन आदि के; मनुष्यगति में आगन्तुक, मानसिक, शारीरिक आदि एवं देवगति में वियोग, हीन भावना आदि के दुःख भोगे हैं ( 9-10 ) । अधिक क्या कहें, आत्मभावना के बिना तू माँ के गर्भ में महा अपवित्र स्थान में सिकुड़ के रहा (11)। आज तक तूने इतनी माताओं का दूध पिया है कि यदि उसे इकट्ठा किया जावे तो सागर भर जावे। तेरे जन्म-मरण से दुःखी माताओं के अश्रुजल से भी सागर भर जावे। इसी प्रकार तूने इस अनंत संसार में इतने जन्म लिये हैं कि उनके केश, नख, नाल और अस्थियों को इकट्ठा करें तो सुमेरु पर्वत से भी बड़ा ढेर हो जावे (1820)1 हे आत्मन्! तूने आत्मभावरहित होकर तीन लोक में जल, थल, अग्नि, पवन, गिरि, नदी, वृक्ष, वन आदि स्थलों पर सर्वत्र सर्व दुःख सहित निवास किया ( 21 ); सर्व पुद्गलों का बार-बार भक्षण किया, फिर भी तृप्ति नहीं हुई ( 22 ) । इसी प्रकार तृषा से पीड़ित होकर तीन लोक का समस्त जल पिया, तथापि तृषा शांत न हुई ( 23 )। अतः अब समस्त बातों का विचार कर, भव को समाप्त करनेवाले रत्नत्रय का चिंतन कर । हे धीर! तुमने अनन्त भवसागर में अनेक बार उत्पन्न होकर अपरिमित शरीर धारण किये व छोड़े हैं, जिनमें से मनुष्यगति में विषभक्षणादि व तिर्यंचगति में हिमपातादि द्वारा कुमरण को प्राप्त होकर महादुःख भोगे हैं ( 25-27)। निगोद में तो एक अन्तर्मुहूर्त में छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण किया है ( 28 ) |

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