Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ जैनविद्या 26 हे जीव! तूने रत्नत्रय के अभाव में दुःखमय संसार में अनादिकाल से भ्रमण किया है (30), अतः अब तुम आत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप रत्नत्रय की प्राप्ति करो, ताकि तुम्हारा मरण कुमरण न बनकर सुमरण बन जाए और शीघ्र ही शाश्वत सुख को प्राप्त करो (31)। अब आचार्य भावरहित मात्र द्रव्यलिंग धारण करने के पश्चात् हुए दुःखों का वर्णन करते हैं - हे मुनिवर! तीन लोक में कोई ऐसा स्थल शेष नहीं है, जहाँ तूने द्रव्यलिंग धारण कर जन्म-मरण धारण न किया हो (33)। न ही कोई पुद्गल ऐसा बचा है, जिसे तूने ग्रहण कर छोड़ा न हो; फिर भी तेरी मुक्ति नहीं हुई (35), अपितु भावलिंग न होने से अनंतकाल तक जन्म-जरा आदि से पीड़ित होते हुए दुःखों को ही भोगा है। _अधिक क्या कहें, इस मनुष्य के शरीर में एक-एक अंगुल में 96-96 रोग होते हैं (37), फिर सम्पूर्ण शरीर के रोगों का तो कहना ही क्या है? पूर्वभवों में उन समस्त रोगों को तूने सहा है एवं आगे भी सहेगा (38)। हे मुनि! तू माता के अपवित्र गर्भ में रहा। वहाँ माता के उच्छिष्ट भोजन से बना हुआ रस रूपी आहार ग्रहण किया (39-40)। फिर बाल अवस्था में अज्ञानवश अपवित्र स्थान में, अपवित्र वस्तु में लेटा रहा व अपवित्र वस्तु ही खाई (41)। हे मुनि! यह देहरूपी घर मांस, हाड़, शुक्र, रुधिर, पित्त, अंतड़ियों, खसिर (रुधिर के बिना अपरिपक्व मल) वसा और पूय (खराब खून) - इन सब मलिन वस्तुओं से भरा है, जिसमें तू आसक्त होकर अनन्तकाल से दुःख भोग रहा है (42)। आचार्यदेव समझाते हुए कहते हैं कि हे धीर! जो सिर्फ कुटुम्बादि से मुक्त हुआ, वह मुक्त नहीं है; अपितु जो आभ्यन्तर की वासना छोड़कर भावों से मुक्त होता है, उसी को मुक्त कहते हैं - ऐसा जानकर आभ्यन्तर की वासना छोड़ (43)। भूतकाल में अनेक ऐसे मुनि हुए हैं, जिन्होंने देहादि परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ रूप धारण किया, किन्तु मानादिक नहीं छोड़े; अतः सिद्धि नहीं हुई (44)। जब निर्मान हुए, तभी मुक्ति हुई। द्रव्यलिंगी उग्रतप करते हुए अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त कर लेता है, किन्तु क्रोधादि के उत्पन्न होने के कारण उसकी वे ऋद्धियाँ स्व-पर के विनाश का ही कारण होती हैं, जैसे बाहु और द्वीपायन मुनि (49-50)।

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100