Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 16
________________ जैनविद्या 26 (3) चारित्रपाहुड पैंतालीस गाथाओं में निबद्ध इस चारित्रपाहुड में सम्यक्त्वाचरण चारित्र और संयमाचरण चारित्र के भेद से चारित्र के भेद किये गये हैं और कहा गया है कि जिनोपदिष्ट ज्ञान-दर्शन शुद्ध सम्यक्त्वाचरण चारित्र है और शुद्ध आचरणरूप चारित्र संयमाचरण है। 5 शंकादि आठ दोषों से रहित, निःशंकादि आठ गुणों (अंगों) से सहित, तत्त्वार्थ के यथार्थ स्वरूप को जानकर श्रद्धान और आचरण करना ही सम्यक्त्वाचरण चारित्र है ( 7 ) । संयमाचरण चारित्र सागार और अनगार के भेद से दो प्रकार का होता है ( 21 ) । ग्यारह प्रतिमाओं में विभक्त श्रावक के संयम को सागार संयमाचरण चारित्र कहते हैं (22)। पंच महाव्रत, पंच समिति, तीन गुप्ति आदि जो उत्कृष्ट संयम निर्ग्रन्थ मुनिराजों के होता है, .वह अनगार संयमाचरण चारित्र है ( 28 ) | जो व्यक्ति सम्यक्त्वा चरण चारित्र को धारण किये बिना संयमाचरण चारित्र को धारण करते हैं, उन्हें मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती ( 10 ) ; सम्यक्त्वाचरण सहित संयमाचरण को धारण करनेवाले को ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। उक्त सम्यक्त्वाचरण चारित्र निर्मल सम्यग्दर्शन - ज्ञान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः यहाँ प्रकारान्तर से यही कहा गया है कि बिना सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र के मात्र बाह्य क्रियाकाण्डरूप चारित्र धारण कर लेने से कुछ भी होने वाला नहीं है। इस प्रकार इस अधिकार में सम्यग्दर्शन - ज्ञान सहित निर्मल चारित्र धारण करने की प्रेरणा दी गई है (40)। (4) बोधपाहुड बासठ गाथाओं में निबद्ध और आयतन, चैत्यगृह, जिनप्रतिमा आदि ग्यारह स्थानों में विभक्त इस पाहुड में ग्यारह स्थानों के माध्यम से एक प्रकार से दिगम्बर धर्म और निर्ग्रन्थ साधु का स्वरूप ही स्पष्ट किया गया है। उक्त ग्यारह स्थानों को निश्चय - व्यवहार की संधिपूर्वक समझाया गया है। इन सबके व्यावहारिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि निश्चय से निर्दोष निर्ग्रन्थ साधु ही आयतन हैं, चैत्यगृह हैं, जिनप्रतिमा हैं, दर्शन हैं, जिनबिंब हैं, जिनमुद्रा हैं, ज्ञान हैं, देव हैं, तीर्थ हैं, अरहंत हैं और प्रव्रज्या हैं (3-4)।

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