Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 19
________________ जैनविद्या 26 भावशुद्धि बिना एकादश अंग का ज्ञान भी व्यर्थ है; किन्तु यदि शास्त्रों का ज्ञान न हो और भावों की विशुद्धता हो तो आत्मानुभव के होने से मुक्ति प्राप्त हुई है। जैसे - शिवभूति मुनि (53)। उक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि भावरहित नग्नत्व अकार्यकारी है। भावसहित द्रव्यलिंग में ही कर्मप्रकृति के समूह का नाश होता है (54)। हे धीरमुनि! इस प्रकार जानकर तुझे आत्मा की ही भावना करना चाहिए (55)। जो मुनि देहादिक परिग्रह व मानकषाय से रहित होता हुआ आत्मा में लीन होता है, वह भावलिंगी है (56)। भावलिंगी मुनि विचार करता है कि मैं परद्रव्य व परभावों से ममत्व को छोड़ता हूँ। मेरा स्वभाव ममत्वरहित है, अतः मैं अन्य सभी आलम्बनों को छोड़कर आत्मा का आलम्बन लेता हूँ (57)। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर, योग - ये सभी भाव अनेक होने पर भी एक आत्मा में ही हैं। संज्ञा, संख्यादि के भेद से उन्हें भिन्न-भिन्न कहा जाता है (58)। मैं तो ज्ञान-दर्शनस्वरूप शाश्वत आत्मा ही हूँ; शेष सब संयोगी पदार्थ परद्रव्य हैं, मुझसे भिन्न हैं (59)। अतः हे आत्मन्! तुम यदि चार गति से छूटकर शाश्वत सुख को पाना चाहते हो तो भावों से शुद्ध होकर अतिनिर्मल आत्मा का चिन्तन करो (60)। जो जीव ऐसा करता है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है (61)। जीव अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण, अनिर्दिष्ट-संस्थान व चेतना गुणवाला है। चैतन्यमयी ज्ञानस्वभावी जीव की भावना कर्मक्षय का कारण होती है, (64)। ___ भाव की महिमा बताते हुए आचार्य कहते हैं कि श्रावकत्व व मुनित्व के कारणभूत भाव ही हैं (66)। भावसहित द्रव्यलिंग से ही कर्मों का नाश होता है। यदि नग्नत्व से ही कार्यसिद्धि हो तो नारकी, पशु आदि सभी जीवसमूह को नग्नत्व के कारण मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, अपितु वे महादुःखी ही हैं। अतः यह स्पष्ट है कि भावरहित नग्नत्व से दुःखों की ही प्राप्ति होती है, संसार में ही भ्रमण होता है (67)। बाह्य में नग्न मुनि पैशून्य, हास्य, भाषा आदि कार्यों से मलिन होता हुआ स्वयं अपयश को प्राप्त करता है एवं व्यवहार धर्म की भी हँसी कराता है; इसलिए आभ्यन्तर भावदोषों से अत्यन्त शुद्ध होकर ही निर्ग्रन्थ बाह्यलिंग धारण करना चाहिए (69)।

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