Book Title: Jain Vidya 26
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 14
________________ जैनविद्या 26 जो जीव स्वयं तो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, पर अपने को संयमी मानकर सम्यग्दृष्टि से अपने पैर पुजवाना चाहते हैं; वे लूले और गूंगे होंगे अर्थात् वे निगोद में जावेंगे, जहाँ न तो चल-फिर ही सकेंगे और न बोल सकेंगे; उन्हें बोधिलाभ अत्यन्त दुर्लभ है (12)। इसी प्रकार जो जीव लज्जा, गारव और भय से सम्यग्दर्शनरहित लोगों के पैर पूजते हैं, वे भी उनके अनुमोदक होने से बोधि को प्राप्त नहीं होंगे (13)। __ जिस प्रकार सम्यग्दर्शनरहित व्यक्ति वंदनीय नहीं है, उसी प्रकार असंयमी भी वंदनीय नहीं है (26)। भले ही बाह्य में वस्त्रादि का त्याग कर दिया हो, तथापि यदि सम्यग्दर्शन और अंतरंग संयम नहीं है तो वह वंदनीय नहीं है; क्योंकि न देह वंदनीय है, न कुल वंदनीय है, न जाति वंदनीय है (27)। वंदनीय तो एक मात्र सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप गुण ही है; अतः रत्नत्रय-विहीन की वंदना जिनमार्ग में उचित नहीं है। जिस प्रकार गुणहीनों की वंदना उचित नहीं है, उसी प्रकार गुणवानों की उपेक्षा भी अनुचित है। अतः जो व्यक्ति सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रवन्त मुनिराजों की भी मत्सरभाव से वंदना नहीं करते हैं, वे भी सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा नहीं हैं। अरे भाई! जो शक्य हो, करो; जो शक्य न हो न करो, पर श्रद्धान तो करना ही चाहिए; क्योंकि केवली भगवान ने श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा है (22)। यह सम्यग्दर्शन रत्नत्रय में सार है, मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी है। इस सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र सम्यक् होते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण दर्शनपाहुड सम्यक्त्व की महिमा से ही भरपूर है। इस पाहुड में समागत निम्नांकित सूक्तियाँ ध्यान देने योग्य हैं - 1. दंसणमूलो धम्मो - धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। (2) 2. सणहीणो ण वंदिव्वो - सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति वंदनीय नहीं है। (2) दसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं - जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं, उनको मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। (3) सोवाणं पढमं मोक्खस्स - सम्यग्दर्शन मोक्ष-महल की प्रथम सीढ़ी है। (21) जं सक्कइ तं कीरइ जं च ण सक्केई तं च सद्दहणं - जो शक्य हो, करो; जो शक्य न हो, न करो; पर श्रद्धान तो करो ही। (22)

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