Book Title: Jain Vidya 26 Author(s): Kamalchand Sogani & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 8
________________ सम्पादकीय “पाँच सौ तीन गाथाओं में निबद्ध एवं आठ पाहुडों में विभक्त यह अष्टपाहुड ग्रंथ मूलसंघ के पट्टाचार्य आचार्य कुन्दकुन्द की अमरकृति है।" “आचार्य कुन्दकुन्द ने विविध पक्ष युक्त पाहुड ग्रन्थों की रचना की है। वे सभी अध्यात्म जगत में ‘अष्टपाहुड' नाम से नहीं अपितु ‘पाहुड' नाम से जाने जाते हैं। 'अष्टपाहुड' में दंसणपाहुड, सुत्तपाहुड, चारित्रपाहुड, बोहपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड और सीलपाहुड - ये आठ पाहुड नाम के अनुसार अपने-अपने विषय की विशुद्ध आत्मस्वरूप की दृष्टि को दिखलाते हैं।" "ये अष्टपाहुड श्रावक व श्रमण के आचरण के निर्देशक ग्रन्थ हैं। इस ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य के प्रशासक रूप में दर्शन होते हैं, जहाँ उन्होंने आचरण को अनुशासित करने का उपदेश दिया है, साथ ही शिथिलाचरण के विरुद्ध आचरण से सावचेत रहने का सन्देश दिया है।'' ___“सणपाहुड की 36 गाथाओं में सम्यग्दर्शन, सुत्तपाहुड की 27 गाथाओं में सम्यग्ज्ञान, चारित्तपाहुड की 45 गाथाओं में सम्यक्त्वाचरण व संयमाचरण के महत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। बोध पाहुड में 62 गाथाओं में साधु के 11 स्थल, भाव पाहुड की 165 गाथाओं में भावशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। मोक्षपाहुड की 106 गाथाओं में मोक्ष के कारणों का निरूपण हुआ है। लिंग पाहुड की 22 गाथाओं में बाह्य लिंगमात्र से मोक्ष की अप्राप्ति और शीलपाहुड की 40 गाथाओं में शील का माहात्म्य और शील को मोक्ष की प्रथम सीढ़ी बताया है। इस प्रकार कुल 503 गाथाओं में आचार्यश्री ने श्रावक व श्रमण दोनों के लौकिक व पारलौकिक अभ्युदय व निःश्रेयस का मार्ग प्रशस्त किया है।" (vii)Page Navigation
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