Book Title: Jain Vidya 26 Author(s): Kamalchand Sogani & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 9
________________ 'आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में उन जीवन-मूल्यों का समावेश है जिनसे प्राणीमात्र का हित सम्पादित होता है। साहित्य वही है जो हमारी आत्मचेतना को जगा दे। यतोऽभ्युदयः निःश्रेयस सिद्धिः सधर्मः - धर्म वही है जो मानवमात्र के इस लोक के अभ्युदय और पारलौकिक जीवन में देह-मुक्ति का कारण बने । आचार्य कुन्दकुन्द का वाङ्मय यह अभीष्ट सिद्धि प्रदाता है । अष्टपाहुड में निबद्ध साहित्य श्रमण व श्रावक / साधु व गृहस्थ दोनों के हितार्थ प्रशस्त मार्ग का निदर्शन है। प्रारम्भ के तीन पाहुड दर्शन, ज्ञान और चारित्र की रत्नत्रयी हैं। प्रत्येक पाहुड अपने में स्वतन्त्र ग्रन्थ है। प्रत्येक का प्रारम्भ मंगलाचरण व प्रतिज्ञा वाक्य से होता है और समापन शिक्षात्मक निष्कर्ष के रूप में है। “ये आठ ग्रन्थ जीवन-मूल्यपरक हैं जहाँ प्रत्येक मूल्यात्मक अनुभूति मनुष्य के ज्ञानात्मक और संवेगात्मक पक्ष की मिली-जुली अनुभूति होती है । समग्र दृष्टि इन दोनों के महत्त्व को स्वीकारने से उत्पन्न होती है । " "इनमें भाव, गति, लय, कवित्व शक्ति, ओज, प्रसाद एवं माधुर्य गुण, शब्द और अर्थ की गंभीरता तथा रमणीय अर्थ की सजीवता है। ये सभी पाहुड 'गाहा' (गाथा) छंद में निबद्ध हैं। इनमें अनुष्टुप, गाहू, विग्गाहा, विपुला आदि छंद भी हैं। " " आचार्य कुन्दकुन्द रचित पाहुडों में शान्तरस की प्रमुखता है। इसके अतिरिक्त अध्यात्म के इन पाहुडों में हास्य, करुणा, वीभत्स, शृंगार, वीर, रौद्र आदि रसों का प्रयोग भी है। रस, आनन्द और हित वस्तु तत्त्व की अनुभूति है। रस सुख की ओर भी ले जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द के पाहुडों में अनुभूति, परम- अनुभूति, परमार्थ अनुभूति या विशुद्ध परिणाम की अनुभूति आभ्यन्तर चेतना का प्राण कहा जाता है। रस आत्म-स्थित भावों को अभिव्यक्त करता है । सत्काव्य आनन्ददायी होता है, यदि वही काव्य आध्यात्मिक विचारों से परिपूर्ण हो तो वैराग्य अवश्य ही उत्पन्न करेगा। संसार से विरक्ति, आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति में अवश्य होती है। " “आचार्यश्री के काव्यों में अनुप्रास, उपमा, रूपक, दृष्टान्त एवं उदाहरणों की बहुलता है। " (viii)Page Navigation
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