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मूलसंघाग्रणी मुनीश्वर कुन्दकुन्दाचार्य
-डॉ० ज्योतिप्रसाद जैन
अन्तिम तीर्थंकर निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र वर्द्धमान महावीर (599-527 ई. पू.) की अनुवर्ती आचार्य-परम्परा में तथा जैन-साहित्य के इतिहास में योगिराज कुन्दकुन्दाचार्य का नाम सर्वाधिक प्रतिष्ठित है । वे न केवल पुस्तक-साहित्य प्रणयन के लिए चलाये गये सरस्वती आन्दोलन या सारस्वत अभियान के सर्वाधिक उत्साही नेता थे वरन् उस युग के सर्वाधिक महान् ग्रन्थकार भी थे । यहाँ तक कि जैन परम्परा में उनका नामस्मरण आज भी मंगलमय माना जाता है । वे भगवान् महावीर की मौलिक परम्परा का प्रतिनिधित्व करनेवाले मूलसंघ के अग्रणी नेता थे और कुन्दकुन्दान्वय के रूप में उनकी अपनी आम्नाय उनकी उत्तरवर्ती शाखा-प्रशाखाओं में विस्तृत होती हुई दूर-दूर तक प्रसारित हुई । अपनी गुरु-परम्परा को अन्ततः कुन्दकुन्दाचार्य के साथ जोड़कर दिगम्बर आम्नाय के जैन मुनि गौरवान्वित होते रहे । कम से कम तीन प्रमुख प्राचीन संघ कुन्दकुन्दान्वय से ही सम्बद्ध रहे । वीर निर्वाण की प्रारम्भिक छः शताब्दियों में जिनवाणी का संरक्षण करनेवाले श्रुतवार प्राचार्यों के अन्तिम वर्ग में प्रायः सर्वप्रमुख, चतुरानुयोगान्तर्गत द्रव्यानुयोग को पुस्तकारूढ़ करनेवाले सर्वप्रथम, जैन अध्यात्म-सरिता की साक्षात् गंगोत्री भगवान् कुन्दकुन्द की ख्याति रही है कि उन्होंने सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में जिनवाणी की आपेक्षिक श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित कर दी थी और उसे लोकप्रिय बना दिया था । अनेक उत्तरवर्ती ग्रन्थकार उनके ऋणी हुए और विशेषकर परवर्ती टीकाकारों के लिए तो कुन्दकुन्द-साहित्य उद्धरणों का कामधेनु सिद्ध हुआ । कुन्दकुन्द के अधिकांश कथन सम्प्रदायातीत हैं और विशेषरूप से उनके ग्रन्थराज समयसार का स्वाध्याय तो दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी आदि प्रायः सभी जैन सम्प्रदायों में तथा अनेक जैनेतरों द्वारा भी श्रद्धापूर्वक होता आया है ।