Book Title: Jain Vidya 10 11
Author(s): Pravinchandra Jain & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 13
________________ कुन्दकुन्द है तुम्हें प्रणाम -पं. अनूपचन्द जैन मंगलमय महावीर जिनेश्वर, गौतम गणधर मंगलधाम । जैनधर्म में कुन्दकुन्द का, मंगलकारी है शुभ नाम ॥ सभी मंगलों में यह पहिला, मंगल है गुणकारी एक । कार्य सहज निर्विघ्न रूप से, हो जाते सम्पन्न अनेक ॥ कुन्दकुन्द प्राचार्य यतीश्वर, परम दिगम्बर मुनि निग्रंथ । मूलसंघ नायक संस्थापक, प्राम्नाय गरण गच्छ सुपंथ ॥ भद्रबाहु के शिष्य योग्यतम, प्रथम शती प्राचार्य महान् । पांच नाम से पूजित जग में, संत शिरोमरिण विद्यावान् ।। कुन्दकुन्द गुरु पद्मनंदि और, गृद्धपिच्छि मुनि परम उदार । वक्रग्रीव तरुण तन शोभित, एलाचार्य नाम सुखकार ॥ परम तपस्वी और यशस्वी, दढ़ श्रद्धानी शांतस्वरूप । ज्ञान-ध्यान-संयम-श्रुतव्यसनी, गुण-गौरव-गरिमा के रूप ॥ जिन में अद्भुत शक्ति अलौकिक, गये देह युत स्वयं विदेह । सीमंधर जिन समवसरण में, दर्शन पाये नि:संदेह ॥ ज्ञानज्योति कर प्राप्त वहां से, फैलाया पागम का ज्ञान । रचे ग्रंथ अध्यात्म विषय के, करने को स्व-पर कल्याण ॥ समयसार पंचास्तिकाय अरु, नियमसार और प्रवचनसार । और अष्टपाहुड की रचना, प्राकृत में ही रची अपार ॥ लिये प्रमुखता अनेकांत और, रत्नत्रय की विविध प्रकार । कर्मों का सिद्धांत निरूपण, और जैनदर्शन का सार ॥ प्रात्मज्ञान ही सर्वोपरि है, सब कृतियों का ये ही सार । प्रातम अनुभव कर लेना ही, भव-सागर से होना पार ॥ कुन्दकुन्द की रचनाओं का, घर घर में हम करें प्रचार । सच्ची शांति मिले सुख वैभव, फैले होय राष्ट्र उद्धार । दो हजार वर्षों का उनका, समारोह का वर्ष महान् । बड़े हर्ष उल्लासपूर्वक, सभी मनायें रखकर ध्यान ॥ जिनशासन के अग्रदूत हे ! प्रात्मज्ञान के पुंज-ललाम । शांति सुधा बरसा दो 'अनुपम', कुन्दकुन्द है तुम्हें प्रणाम ।

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