________________
आरम्भिक
"जैनविद्या" पत्रिका का द्वितीय अंक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता है।
___ भारत की प्रत्येक भाषा के साहित्य की विभिन्न विधाओं की श्रीवृद्धि में जैनाचार्यों, गृहस्थ विद्वानों, त्यागियों, व्रतियों आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। अपभ्रंश भाषा के ज्ञात साहित्य का लगभग अस्सी प्रतिशत तो जैन साहित्यकारों की ही देन है अतः यह कहना कि अपभ्रंश भाषा के साहित्य निर्माण में, उनकी विभिन्न विधाओं को समृद्ध बनाने में जैनों की प्रमुख भूमिका रही है अत्युक्ति नहीं है ।
अपभ्रंश यद्यपि उत्तर भारत की लोकभाषा रही है किन्तु इस भाषा के प्राचीनतम ज्ञात साहित्य का निर्माण दक्षिण में हुआ। अपभ्रंश के प्राद्य महाकवि स्वयंभू एवं पुष्पदंत की साहित्य निर्माणस्थली दक्षिण भारत ही थी। दोनों ने ही दक्षिण भारत के कर्णाटक प्रान्त को अपने आवास से पवित्र किया था।
साहित्य का प्रणयन जिस कालविशेष में होता है उस समय की सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों एवं गतिविधियों का प्रभाव उस काल में निर्मित साहित्य पर पड़े बिना नहीं रहता। अतः ये कृतियाँ इस विषय का अध्ययन करनेवाले विद्वानों के लिए दर्पण का कार्य करती हैं। भाषा के उद्भव, विकास तथा भाषागत प्रवृत्तियों आदि के समझने में ये कृतियां सहायक होती हैं ।
अपभ्रंश भाषा का विकास और प्रसार काल ईसा की छठी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक माना जाता है किन्तु इसके पश्चात् भी इस भाषा में साहित्य का निर्माण होना अपेक्षाकृत कम भले ही हो गया हो किन्तु सर्वथा बन्द नहीं हुआ। यह बात इससे भी पुष्ट होती है कि इस भाषा की अन्तिम रचना पाण्डे भगवतीदास की सम्वत् --1700 की मृगांकलेखाचरित्र अपर नाम शशिलेहाचरिउ प्राप्त होती है ।