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प्राकृत के पश्चात् जिस भाषा ने लोकभाषा का स्वरूप ग्रहण किया वह अपभ्रंश नाम से पुकारी जाती है । श्राज से 82-83 वर्ष पूर्व इस भाषा का साहित्य अज्ञात था क्योंकि यह जैन ग्रंथ भण्डारों में बन्द पड़ा रहा और भारतीय विद्वानों द्वारा उसे धार्मिक साहित्य-मात्र समझा जाकर उसकी उपेक्षा को जाती रही । सन् 1902 में सर्वप्रथम प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पिशल ने " मारेरी लिएव सुर केण्टिनस डेस अपभ्रंश" शीर्षक एक निबंध लिख कर विद्वानों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया। इसके पश्चात् जर्मनी के ही जैकोबी, प्राल्सफोर्ड आदि विद्वानों ने इसमें रुचि लेकर इस कार्य को आगे बढ़ाया और भारतीय साहित्य के इतिहास में इस भाषा के महत्त्व को भाषाविदों के सामने रखा । यदि ये विदेशी विद्वान् ऐसा नहीं करते तो अभी भी शायद यह विषय उपेक्षित ही रहता । एतदर्थ भारतीय साहित्य जगत् सदा उनका ऋणी रहेगा ।
अपभ्रंश भाषा की अब तक ज्ञात रचनाओं में से अधिकांश जैन विद्वानों द्वारा रचित हैं । इस कारण वे मात्र लोकानुरंजक न होकर जनहितकारी भी हैं । अपभ्रंश के इस महत्त्व को ध्यान में रखकर ही संस्थान के उद्देश्यों के अनुकूल पत्रिका ने अपभ्रंश भाषा के जैन रचनाकारों पर विशेषांकों की श्रृंखला प्रारम्भ की है ।
हमारे प्रकाशनों के संबंध में पाठकों द्वारा बतलाई गई कमियों, त्रुटियों का सदा ही स्वागत है । इस प्रकार हमारे ध्यान में लाई गई खामियों को भविष्य के प्रकाशनों में दूर करने का प्रयत्न किया जायगा ।
जिन विद्वान् साहित्यकारों ने रचनाएं प्रेषित कर सहयोग प्रदान किया उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना हम हमारा परम कर्तव्य मानते हैं। साथ ही संस्थान के संयोजक महोदय डॉ० गोपीचन्द पाटनी, मानद निदेशक एवं प्रधान सम्पादक प्रो० प्रवीणचन्द्र जैन, सहायक सम्पादक श्री भंवरलाल पोल्याका एवं सुश्री प्रीति जैन आदि सम्पादन एवं प्रकाशन कार्य में दिये गये सहयोग हेतु तथा जयपुर प्रिण्टर्स के प्रोप्राइटर श्री सोहनलाल जैन आकर्षक कलापूर्ण मुद्रण के लिए धन्यवादार्ह हैं जिनके सम्मिलित प्रयासों और सहयोग का ही यह परिणाम है ।
-कपूरचन्द पाटनी प्रबन्ध सम्पादक
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