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'तरुण जैन' जुलाई सन् १९४१ ई०
पर्यत, समुद्र, नदी और नगर गतांक में जैन सूत्र पन्नवणा के अनुसार पृथ्वी सम्बन्धी असंख्यात योजनों की लम्बी-चौड़ी कल्पना को लिखते समय मेरे हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि इस सम्बन्ध की ऐसी हवाई कल्पना किन्हीं अन्य धर्मावलम्बियों के धर्म-ग्रन्थों में भी कहीं की गई है क्या ? तो सनातन धर्म की श्री मद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में इसी कल्पना से बहुत मिलती-जुलती कल्पना पाई गई। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कन्ध में इस प्रकार वर्णन है कि इस पृथ्वी पर सात द्वीप और सात समुद्र हैं। प्रत्येक द्वीप के बाद एक समुद्र और उस समुद्र के बाद एक द्वीप लगातार है। जैन शास्त्रों की ही तरह प्रथम द्वीप को, जिसका नाम भी जम्बू द्वीप ही है, एक लाख योजन का थाली जैसा समतल और गोलाकार माना है। इस जम्बू द्वीप के चारों तरफ क्षार (लवण) समुद्र गोलाकार एक ही लाख योजन का है। मगर जैन शास्त्रों में इस लवण (क्षार) समुद्र को दो लाख योजन का माना गया है। जैन शास्त्रों में प्रत्येक द्वीप के बाहर का समुद्र उस द्वीप से दुगुणा बड़ा माना है; मगर इन्होंने जितना माप द्वीप का बताया है उतना ही उसके बाहर के समुद्र का बतलाया है और प्रत्येक द्वीप को उसके पहले
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