Book Title: Jain Shastro ki Asangat Bate
Author(s): Vaccharaj Singhi
Publisher: Buddhivadi Prakashan

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Page 207
________________ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! १६६ रहे हैं और दूसरी सम्प्रदाय वाले उन्हीं सूत्रों के आधार पर बचाने में तो पाप मान ही रहे हैं अपितु मारने वाले कसाई को “मतमार” ऐसा कहने तक में एकान्त पाप मान रहे हैं। किसी भी सम्प्रदाय पर यह आरोप करना तो सरासर मूर्खता होगी कि अमुक सम्प्रदाय के व्यक्ति स्वार्थी एवम् धूर्त्त हैं इसलिये अपने स्वार्थ के लिये अपने मतकी बात अमुक प्रकार से बता रहे हैं । कारण, अकेला एक व्यक्ति स्वार्थी अथवा धूर्त्त हो सकता है परन्तु जिन सम्प्रदायों में प्रत्येक में लाखों मनुष्य हों और सबके सब स्वार्थी एवम् धूर्त्त हों अथवा मूर्ख या अज्ञानी हों - यह असम्भव बात है और ऐसा समझना भी नितान्त मूर्खता है । आत्म कल्याण के लिये जिन संस्थाओं का जन्म हुआ है उन प्रत्येक के लाखों मनुष्यों में से बहुतसे आत्मार्थी एवम् बहुत से विद्वान् सूत्रों की सच्ची रहस्य को समझने-समझाने वाले भी अवश्य होंगे, यह मानी हुई बात है । फिर ऐसा क्यों हो रहा है इसका कारण समझने की पूरी आवश्यक्ता है । कारण स्पष्ट है कि इन सूत्रों की लिखावट ही ऐसी बेढ़व है कि एक विषय में किसी स्थान में पक्षकी बात कहदी है तो दूसरे स्थान में उसीके विपक्ष की कह दी है 1 एक स्थानमें विधि कर दी है तो दूसरे स्थानमें उसीका निषेध कर दिया है । स्थान स्थान पर ऐसे सन्दिग्ध और शंका-कारक कथन हैं कि जो जैसा चाहता है अपने मतकी पुष्टिके लिये वैसा ही प्रमाण निकाल सकता है । अन्यथा ऐसा नहीं होता कि एक ही सूत्रों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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