Book Title: Jain Shastro ki Asangat Bate
Author(s): Vaccharaj Singhi
Publisher: Buddhivadi Prakashan

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Page 222
________________ २१४ जैन शास्त्रों की असंगत बातें ! हैं तब उनके धर्मको सच्चा या झूठा कैसे कह सकते हैं ? अगर हम उसे सच्चा कहते हैं तो अल्पज्ञानी होने पर भी हमारी परीक्षकता सिद्ध होती है। इसलिये हमें शास्त्रके नाम पर पागल न होकर परीक्षा करना चाहिये । और जो बातें युक्तियों या मूल सिद्वान्त से विरुद्ध जचे उसे शास्त्र बचन न समझना चाहिये। अगर हम इतना नहीं कर सकते तो दुनियाँ के मिथ्यामतावलम्बियों से हममें कोई विशेषता नहीं है। हमारा सत्यता का अभिमान झूठा घमंड है। कहा जा सकता है कि “यदि ऐसा है तो आज्ञा-सम्यक्त्वी के लिये कोई स्थान ही नहीं है"। यहां हमें आज्ञाप्रधानीका स्वरूप समझ लेना चाहिये। आज्ञासम्यक्त्वी आज्ञा को प्रधान स्थान देता है और परीक्षाको गौण । परन्तु किसकी आज्ञा मानना, इस विषयमें तो उसे भी परीक्षासे काम लेना पड़ता है। आज्ञाप्रधानी का यह मतलब नहीं है कि वह चाहे जिस शास्त्रकी आज्ञा मानता फिरे। ऐसी हालत में तो आज्ञाप्रधानी और वैनयिकमिथ्यात्वी में कुछ भी अन्तर न रहेगा। बात यह है कि आज्ञाप्रधानी विशेष बुद्धिमान या विद्वान् नहीं होता। इस लिये उसे बहुतसी बात आज्ञासे ही मानना पड़ती हैं। परन्तु प्रारम्भमें शास्त्राशास्त्र धर्माधर्म आदिका निर्णय तो करता ही है। साथ ही उसमें जितनी विद्या बुद्धि होती है उतनी परीक्षा भी करता है। परीक्षा करने की योग्यता होने पर भी अगर वह परीक्षासे काम न ले तो मिथ्यात्वी है। जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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