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'तरुण जैन' मार्च सन् १६४२ ई०
असत्य, अस्वाभाविक और असम्भव
गत जनवरी और फरवरी के मेरे लेखों से यह प्रमाणित हो चुका है कि जैन शास्त्रों में सैकड़ों जगह बताया हुआ गणित सर्वथा असत्य और गलत है । गोलाई के व्यास की परिधि और क्षेत्रफल बताने में जहां इस प्रकार सर्वज्ञता के नाम पर अल्पज्ञता का स्पष्ट परिचय मिल रहा है और उन्हीं शास्त्रों की अक्षर अक्षर सत्यता की दुहाई पर सामाजिक मनुष्य के लिये यह उपदेश मिल रहा है कि शिक्षा प्रचार करना, भूखे प्यासे को अन्न-पानी की सहायता करना, माता, पिता, पति आदि की सेवा सुश्रूषा करना अधर्म है यानी सामाजिक जीवन को सुखी एवं उन्नत बनाने वाले जितने भी साधन हैं, सब एकान्त पाप और अधर्म हैं, तो जिस मनुष्य के दिमाग में किञ्चित भी सोचने की शक्ति है वह यह सोचे बिना नहीं रह सकता कि शास्त्रों के ऐसे बचनों को हम किस सत्यता के आधार पर अक्षर अक्षर सत्य मान रहे हैं ? अब तक मैंने 'तरुण' में जितने लेख दिये, वे सब प्रश्नों के रूप में थे। मेरी भावना यह थी कि देख, हमारे शास्त्रज्ञ, जिनका व्यवसाय (Profession) केवल इन शास्त्रों की अक्षर अक्षर सत्यता पर टिका हुआ है, शास्त्रों के असत्य प्रतीत होने वाले वचनों को सत्य साबित कर
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