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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
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अन्य साधुओं के साथ जाकर दूध, दही, मद्य, मांस आदि पाठ में आई हुई कोई भी बस्तु लाकर अपने ही हिस्से के अनुसार खावे तो शास्त्रकार के अभिप्राय के अनुसार कोई दोष प्रमाणित नहीं होता । शास्त्रकार की दृष्टि में इस स्थान पर मद्य मांस साधु के लिये त्याज्य वस्तु होती तो पाठ में इन शब्दों का प्रयोग ही नहीं होता ।
टीकाकार श्री शिलंगाचार्य फरमा रहे हैं कि किसी समय कोई साधु अतिप्रमादी और लोलुपी होकर मद्य मांस को खाना चाहे उसके लिये यह उल्लेख है । टीकाकार ने इस पाठ में आये हुए मद्य और मांस शब्दों को बनस्पति बगैरा कहने का प्रयत्न नहीं किया। कारण मद्य के साथ मांस काशब्द होने से बनस्पति पर्क में लेकर इस प्रकार कहने की कोई गुञ्जाइश नहीं देखी । केवल साधु को अतिप्रमादी और लोलुपी होने का कह कर शुद्ध साधु के साथ मद्य मांस के व्यवहार का सम्बन्ध तोड़ने का प्रयत्न किया है परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं कहा कि जो साधु प्रमाद व मद्य मांस का प्रयोग करता है वह शुद्ध साधु नहीं रह सकता। यदि ऐसे अतिप्रमादी साधु के लिये यह कह देते कि इस प्रकार मद्य मांस का प्रयोग करने वाला मुनि साधु नहीं रह सकता तो इस पाठ में आये हुए मद्य मांस के शब्दों के ऊपर उठने वाली शंकाओं का अपने आप ही समाधान हो जाता । पाठ के अभिप्राय के अनुसार केवल मद्य मांस के लिये साधु पर अतिप्रमादी और लोलुपीपन का आरोप करना बन नहीं
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