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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
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के भीतर बैठ कर उस मांस या मछली को खा लेवे और उस मांस मछली के कांटे तथा हड्डियों को निर्जीव स्थान में रजोहरण से साफ करके परठ दे ।
इस पाठ पर टीका करते हुए टीकाकार फरमाते हैं कि. अनिवार्य कारणों पर अपवाद मार्ग में मत्स्य मांस का साधु वाह्य परिभोग कर सकता है ।
उपर के पाठ में स्पष्ट कहा है कि बाग या उपाश्रय के भीतर बैठकर साधु उस मांस व मछली को खा लेवे । ऐसी दशा में टीकाकार का यह फरमाना कि अनिवार्य कारणों पर अपवाद. मार्ग में मांस मछली का बाह्य प्रयोग करने का कहा है, सर्वथा खंडित हो जाता है । पाठ में खाने का शब्द साफ भोवा लिखा हुआ है ओर टीकाकार बाह्य प्रयोग का कह रहे हैं यह कहां तक युक्ति संगत है पाठक स्वयम् विचार लें
उपरके इन सब पाठों में टीकाकार ने मद्यंवा, मंसंबा, मच्छंवा शब्दों के अर्थ शराब, मांस, मछली मानते हुए ही साधु के भोजन व्यवहारों में इनको किसी तरह से टाले जा सकने का प्रयत्न किया है । परन्तु बनस्पति नहीं कहा | टीकाकार श्री शिलंगाचार्य कोई साधारण कोटि के साधु नहीं थे, उन्होंने ११ अंग सूत्रों की टीका की थी जिनमें से वर्त्तमान में २ की टीका उपलब्ध है और बाकी की नहीं मिल रही हैं । इतने बड़े प्रगाढ़ विद्वान और जैनाचार्य पर यह इल्जाम तो कतई नहीं लगाया जा सकता कि इन पाठों में
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