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जन शास्त्रों की असंगत बातें ! १८३ को एक ग्लास पानी-जो कि असंख्यात जल काय के जीवोंका पिण्ड है ( पानी की एक नन्ही-सी बून्द में असंख्यात जीव माने गये हैं )-पिलाने पर एक जीव को बचाना और एवज में असंख्यात जीवों को मारने का भागी बनना किसी प्रकारसे भी युक्ति-संगत नहीं ; जब कि प्रत्येक जीव की, चाहे वह सत्र हो चाहे स्थावर दोनों की, एक समान स्थिति मानली गई हो। शास्त्रों में लिखा है कि स्थावर जीवों के भी प्राण हैं, वे स्वासोच्छ्वास लेते हैं, आहार प्राप्त करते हैं और किसी प्रकार के स्पर्श या साधारणतः आक्रान्त होने पर उनके शरीर में अत्यन्त बेदना होती है और मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में एक त्रस जीव को बचाने वाला क्या असंख्यात स्थावर जीवों पर बीतने वाले कष्टों और संकटों को भूल सकता है ? शास्त्रों में यदि ऐसा कथन होता कि इन पांच स्थावर काय के जीवों के जीवन का मूल्य मानव जीवन की अपेक्षा में नगण्य है, अथवा एक मनुष्य के बचाने में असंख्यात स्थावर जीवों की हिंसा का होना कोई मूल्य नहीं रखता; तो पाप-धर्म को विवेचना की तुला पर चढ़ाकर निर्णय कर सकनेका मनुष्य को मौका मिलता ; परन्तु बात ऐसी नहीं है। शास्त्र तो, चाहे जीव त्रस हो चाहै स्थावर, सब को जीव बताकर उनको विराधने में पाप होने का कथन कर रहे हैं। जीव के मरनेनहीं मरने के अतिरिक्त पाप धर्म लगने का एक जरिया मनुष्य के लिये और भी बतलाया गया है। वह है मानव के मन
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