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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
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कोले का नाम कुष्माण्ड कहा हुआ मिल रहा है फिर इसी स्थल में बिजोरे को कपोत शरीर और कोले को कुक्कुड़ मांस कहने की कौन सी आवश्यकता थी यह बिचार ने की बात है।
आचारांग सूत्र के कई स्थानों में ऐसे पाठ आते है जिनमें मुनियों के भोजन व्यवहारों के साथ मद्यवा, मांसंवा, मच्छंवा शब्दों का प्रयोग हुवा है जैसे- आचारांग सूत्र के १० वें अध्ययन के चौथे उद्देश में इस प्रकार है__संति तत्थेपतियस्ल भिक्खुम्स पुरे संथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तेजहा गाहावतीवा, गाहावतीणोवा, गाहावतिपुत्रवा, गाहावतीधुयाओवा, गाहावती सणाओवा, धाईओवा, दासीवा दासीओवा, कम्मकरावा, कम्मकरीओ वा तहप्पगाराई कुलाई पुरेसंथुयाणी वा पच्छसुथुयाणि वा पुवामेव भिक्खायरियाए अणुपविसिस्सामि अविय इत्थ लभिस्सामि, पिंडवा, लोयंवा खीरंवा दधिंवा नवणीयंवा घयं वा, गुलम्वा, तेल्लंबा, मझुवा, मज्जंवा, मांसंवा, संकुलिंवा, फाणियंवा पूयंवा सिहरिणिवा, तं पुवामेव भच्चा पेच्चा, पडिगाहं संलिहियं सपमज्जिय, ततोपच्छा, भिक्खुहिं सद्धिं गाहवातिकुलं पिंडवाय पडियाए पडिसिस्सामि निक्खभिस्सामिवा। माइठाणं फासेणो एवं करेज्जा। सेतत्थ भिक्खूहिं सद्धिं कालेणं, अणुपविसित्ता तत्थियरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसिय, वेसियं पिंडवायं पडिगाहेत्ता आहारं आहातेज्जा।
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