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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
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ठान ली धौर इसी प्रयत्न में रहा कि किसी तरह से इन मूर्तिपुजकों को अपमानित कर सकूं तो ठीक हो । इसी दृष्टि से उसने मूर्ति पूजकों के माने हुये ४५ सूत्रों में से केवल ३२ सूत्रों के मूल पाठ को मान्य रखकर बाकी के १३ सूत्रों में स्वार्थी लोगों के कथन प्रक्षेप किये हुये हैं, कहकर अमान्य ठहराया । कारण इन १३ सूत्रों में मूर्ति पूजा के पक्ष में अनेक स्थानों में स्पष्ट तौर पर विधान दिया हुआ है और पूजा को आत्म-कल्याण का उत्तम साधन बताया गया है । इसीलिये ३२ सूत्रों पर लिखे हुये भद्रबाहु स्वामी, मलयगिरि, शिलङ्काचार्य, अभयदेव सूरि आदि अनेक आचार्यों के भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, अवचूरि, टीका, नियुक्ति आदि के विषय में भी यह कह दिया कि जो बातें इनमें बताई हुई हमारे विचारों के अनकूल नहीं हैं वे हमें मान्य नहीं हैं । लुङ्का ने अपने प्रचार में अथक परिश्रम करके लुंपक मत के नाम से अपना सम्प्रदाय चालू कर दिया । इस लुंपक मत में से विक्रम सम्वत् १७०६ में लवजी नाम के एक साधु ने अपना टोला कायम किया जिसके बढ़ते बढ़ते २२ टोले बन गये । वही बाईस टोले अथवा स्थानकवासियों के नाम से इस समय प्रसिद्ध हैं । इन बाईसटोलों में से एक टोला श्री रघुनाथ जी नाम के आचार्य का था जिसमें से विक्रम सम्वत् १८१८ में श्री भीखनजी ने अलग होकर तेरापंथ नाम का अपना मत चालू किया । तेरापंथी भी स्थानकवासियों की तरह ३२ सूत्रों के केवल मूल पाठ को
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