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जैन शास्त्रों की असंगत बातें !
जानते हैं कि १००००० योजन के व्यास के गोल चक्कर की
परिधि ३१४१५६. योजन होगी । स्थूल हिसाब से एक गोलाई के व्यास की परिधि या ३ गुना होती है और भारतीय उच्च गणित-ग्रंथ लीलावती के अनुसार सूक्ष्म परिधि ३ १४१६० और वर्तमान सूक्ष्म गणित ( जहाँ तक कि मैने देखा है ) के अनुसार ३ १४१५६२६५ गुना होती है । यही गुर (Formula) विज्ञान और इञ्जिनियरिङ्ग में काम में लाया जाता है और इतना सही है कि परीक्षा में सम्पूर्ण सत्य उतरता है। जैन शास्त्रों में जम्बूद्वीप की गोलाई पूर्णिमा के गोल चन्द्र के सदृश्य बताकर एक लाख योजन के व्यास की परिधि बताने में सर्वज्ञों ने सूक्ष्मता का तो कमाल कर दिया है । युक (जू ), लिख, बालाग्र और व्यवहरिये प्रमाणुओं तक को घसीट लिया गया और योजनों की सत्यता में सारा ही घाटा ! जम्बूद्वीप की परिधि बताने में सूक्ष्म अन्तर को तो दरकिनार रखिये, यहाँ तो २०६८ योजन यानी ८२७२००० माइल का बहुत बड़ा अन्तर पड़ रहा है। लोक आकाश के घनफल बताने की असत्यता के बाबत 'तरुण' के गत अङ्क में श्री मूलचन्दजी बैद ( लाडनूं ) के लेख में देखा ही जा चुका है कि शास्त्रों में लोक आकाश का जो आकार बताया है उसके अनुसार इनके द्वारा बताया हुआ ३४३ का घनफल किसी प्रकार से भी प्रमाणित नहीं हो सकता * । पाठकवृन्द, यह है
उक्त लेख 'लोक के कथित माप का परीक्षण' शीर्षक से इस पुस्तक के परिशिष्ट में छपा है ।
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