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[अठारह]
जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सप्तदश अध्याय
तिलोयपण्णत्ती प्रथम प्रकरण-तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण
४३१ क- रचनाकाल : ईसा की द्वितीय शती का उत्तरार्ध
४३१ ख-यापनीयग्रन्थ मानने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु ग- सभी हेतु असत्य घ- तिलोयपण्णत्ती में यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्त १. सवस्त्रमुक्तिनिषेध
४३३ २. स्त्रीमुक्तिनिषेध
२.१. स्त्रियाँ पूर्वधर नहीं होती २.२. मल्लिनाथ के साथ कोई स्त्रीदीक्षा नहीं
४३६ २.३. समस्त तीर्थंकरों के तीर्थ में केवल मुनियों को ही मोक्ष- ४३७ २.४. मल्लिनाथ का अवतार अपराजितस्वर्ग से, जयन्त से नहीं।
२.५. हुण्डावसर्पिणी के दोषों में स्त्रीतीर्थंकर का उल्लेख नहीं ३. गृहस्थमुक्तिनिषेध ४. अन्यलिंगिमुक्तिनिषेध ५. केवलिभुक्तिनिषेध
४४० ६. आचार्यपरम्परा दिगम्बरमतानुसार
४४२ ७. आगमों के विच्छेद का कथन
४४३ ८. कल्पों की संख्या १२ और १६ दोनों मान्य ९. नव अनुदिश मान्य १०. अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ मान्य ११. काल की स्वतंत्रद्रव्य के रूप में मान्यता १२. मोक्षमार्ग की चतुर्दश-गुणस्थानात्मकता
४४९ १३. दिव्यध्वनि सर्वभाषात्मक
४५० १४. चामर-प्रातिहार्य में चामरों की बहुलता १५. तीर्थंकर के नभोयान का उल्लेख १६. कुन्दकुन्द की गाथाओं का संग्रहण एवं अनुकरण
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