Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएं सौभाग्य की प्रथम रात्रि को नव-परिणीता विजया भव्य वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत हुई। सोलह श्रृंगार सजे और पति के शयन-कक्ष में आई । विजय ने प्रिय एवं मधुर वचनों से उसका स्वागत किया। प्रणय-वार्ता प्रारम्भ होने से पूर्व ही विजय ने अपने संकल्प को स्पष्ट करते हुए कहा-"प्रिये! तुम्हारा अनिन्ध रूप, यौवन और सौन्दर्य पाकर मैं धन्यधन्य हो गया हूँ । हमारा जीवन बहुत ही शान्त और सुखमय रहेगा। हम मर्यादापूर्वक सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए आदर्श जीवन जीएंगे। मैंने विवाह से पूर्व एक नियम लिया था, तदनुसार अब उसमें तीन दिन बाकी रह गए हैं। विजया की लज्जावश झुकी हुई आँखें एकदम पति के चेहरे की और उन्मुख हो गईं- "क्या ?" । “यही कि मैं शुक्ल - पक्ष में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा। सुमुखी ! कोई बात नहीं, अब शुक्ल पक्ष के सिर्फ तीन दिन ही शेष रहे हैं।" विजया की आँखें गीली हो आईं। उसका चेहरा धूप से झलसी हुई कमलिनी की तरह एकदम म्लान हो गया । उसकी आँखों के आगे जैसी पृथ्वी घूम उठी। बिजय ने पत्नी के कन्धे को झकझोरते हुए कहा"विजया ! यह सब क्यों ? इतना खेद किसलिए? तुम्हारी अवहेलना नहीं कर रहा हूं, केवल प्रतिज्ञा की बात ही तो बता रहा हूँ। सिर्फ तीन दिन ही तो बाकी हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94