Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 76
________________ शान्ति के मंभल-सूत्र ६७ पड़ा--"अब 'मिच्छामि दुक्कडं' याद आया है ? इतनी देर कहाँ चले गए थे ? घी को गिरने से रुकने को तो कहा, पर इसने श्रीमान् की आज्ञा का कहाँ पालन किया ? वह तो गिरता ही जा रहा था।" यक्ष के तीखे व्यंग्य विष-बुझे वाण जैसे थे। पर अमृत को विष कभी उद्वेलित कर सका है ? मुनि का हृदय विषाक्त वाक्य वाणों से आहत होकर भी शान्त रहा । बड़ी गम्भीरता से उन्होंने कहा--"श्रावक ! संयम से काम लो। व्यर्थ ही ऐसे कठोर वचन कह कर अपने आप को क्यों गिरा रहे हो? यह तो तुम्हारे लिए 'फोड़े पर फुन्सी' जैसा हो रहा है।" ___ यक्ष मन-ही-मन सोचने लगा-- "कैसा पागल जैसा प्रलाप कर रहा है मुनि ? अपने को तो नहीं, उल्टा मुझे ही गिरा हुआ बता रहा है।" उससे चुप नहीं रहा गया, बोला"महाराज ! आप तो रोष में मुझे ही गालियाँ दे रहे हैं ?" सुदत्त मुनि ने कहा--"मेरे मन में न पहले ही रोष था और न अब ही है । यह तो जैसा मैंने देखा,वैसा कह दिया।" यक्ष-"क्या देखा आपने ? कुछ बतलाइए तो सही?" मुनि ने गम्भीर होकर कहा- "जब मैं भिक्षा के लिए तुम्हारे घर आया,तो तुम्हारे भाव बड़े उच्च और निर्मल थे। मैं उन्हीं भावों का विश्लेषण करने में लग गया और पात्र की ओर से मुझे विस्मृति हो गई । मैंने देखा-तुम्हारा विशुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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