Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 85
________________ ७६ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ आँसुओं से भीगी-भींगों। वह अपने को छिपाने की चेष्टा कर रहा था, कहीं उपाध्याय इन्द्रदत्त उसे इस पंक्ति में खड़ा देख न लें। राजा प्रसेनजित ने अपराधी की विचित्र मनःस्थिति देखी। सोचा-यह अपराधी नहीं है, परिस्थिति का मारा कोई भूला-भटका भद्र युवक है। राजा ने उस पर एक तीखी निगाह डाली और कड़कती आवाज से पूछा- "क्यों रे, रात्रि को कहाँ चोरी करने निकला था ?" __ कपिल ने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा-"महाराज! चोरी जैसा अनार्य-कर्म मैं ब्राह्मण-पुत्र कैसे कर सकता हूँ? भीख माँगने निकला था। सिर्फ दो मासा सोने के लिए।" राजा को कपिल की बात बड़ी विचित्र लगी। कहा"सच-सच बतलाएगा, तो माफ कर दिया जाएगा। कुछ भी झूठ कहा तो याद रख, प्रसेनजित के राज्य में झूठ का दंड सब से कठोर है।" कपिल ने नपे-तुले शब्दों में अपने जीवन का बीता घटनाचित्र राजा के सामने रख दिया। घर से चलने से लेकर बन्दी बनने और उसके बाद पश्चात्ताप के आँसू बहाने तक की कहानी राजा को सुना दी। कपिल की शारीरिक दशा एवं वाणी के टूटते और काँपते स्वर उसकी मनःस्थिति को स्पष्ट कर रहे थे कि वह अपराधी नहीं है। उसकी सत्य-निष्ठा और करुण अवस्था पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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