Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 91
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ 1 धरती दहकते अंगारों की तरह जल रही थी । तृषा से गला सूखा जा रहा था, क्षुधा से पैर लड़खड़ा रहे थे । पीड़ा से आकुल व्याकुल मुनि किसी तरह चम्पानगरी के प्रवेशद्वारा तक आये । सोचा -- असह्य धूप हो रही है, नगर में जाने का कोई सीधा और निकट का रास्ता मिल जाये, तो ठीक है । तभी एक नागरिक किसी कार्यवश नगर से बाहर आता दिखाई दिया । आगन्तुक ने मुनि को सामने खड़ा देखा तो बड़ा खिन्न हुआ । सोचा --- मुण्डित सिर वाला साधु सामने मिल गया, अपशकुन हो गया । अब अभीष्ट कार्य में कैसी सफलता ?” वह वहीं रुक गया। मुनि के प्रति उसके मन में बड़ा रोष था । 3 ८२ मुनि स्वयं यात्री के निकट आये और बोले - " भद्र ! इस नगर की वस्ती में जाने का कोई सीधा रास्ता हो, तो बता दो, ताकि धूप में अधिक पोड़ा न उठानी पड़े ।” नागरिक मुनि को अपशकुन समझकर झुंझलाया हुआ तो था ही । सोचा - इस साधु को रास्ते को जानकारी नहीं है, अतः क्यों न इस मुण्ड को अपशकुन करने का मजा चखा दूँ ? ऐसा रास्ता बताऊँ कि बस जीवन भर याद करे ।" अविवेकी नागरिक ने मुनि को एक गलत रास्ते की ओर संकेत करके कहा - "मुनिवर ! इस रास्ते चले जाओ ।" ; सरल स्वभावी मुनि उसी रास्ते चल पड़े । परन्तु वह तो बड़ा विकट, ऊबड़ खाबड़ ऊँचा - नीचा और धूल से भरा हुआ। ऐसा विकट रास्ता कि कदम भर चलना कठिन हो गया । नगर के मकानों की पीठ-ही-पीठ दिखाई दे रही थी, अतः किसी घर में जाने का रास्ता ही नहीं मिला। भूखे Jain Education International - B For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 89 90 91 92 93 94