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अन्धकार के पार
प्यासे तपस्वी मुनि चिल - चिलाती धप में जलते रेत पर चलते - चलते बड़े खिन्न हो गए। वेदना असह्य हो जाती है, तो वह धीरज का बांध तोड़ देती है। मुनि को नागरिक के अकारण दुष्ट व्यवहार पर बड़ा क्रोध आया। सोचा-"इस नगर के लोग कैसे दुष्ट हैं ? बिना किसी स्वार्थ के मुझ जैसे साधु को भी यों संकट में डाल दिया । ऐसे दुष्टों को तो कड़ी शिक्षा करनी चाहिए।"
क्रोधावेश में आए मुनि वहीं एक ओर खड़े होकर 'उत्थान श्रुत' के उद्वेग पैदा करने वाले अंश-विशेष का पाठ करने लगे। मंत्र - प्रभाव तो अचक होता है। नगर के लोग जो जहाँ भी खड़े थे, घबराने लगे। उद्विग्न होकर इधर-उधर दौड़ने लगे। उन्हें लगा कि जैसे अभी कुछ अनिष्ट होने वाला है ? भयंकर विपत्ति आने वाली है ? मन - मस्तिष्क पर प्रलय - जैसा दृश्य चक्कर काटने लगा। नगर में भयंकर कोलाहल-सा हो गया। लोग हाय - हाय करने लगे। सबके मन और तन में जैसे जलन-सी होने लगी। किसी के समझ में नहीं आया कि यह सब क्या और क्यों हो रहा है।
नगरजनों का भयानक कोलाहल मुनि के कानों तक पहुंचा । दूसरे ही क्षण लोगों को 'हाय-हाय' करते हुए इधरउधर दौड़ते भी देखा । बड़ी विचित्र स्थिति थी। कोई कहीं गिर रहा है, तो कोई चिल्ला रहा है, चीख रहा है और कोई पागल की तरह कपड़े फाड़ रहा है । यह सब देख कर मुनि का पहले का वह ऋद्ध मन सहसा करुणाद्र हो उठा । लोगों के कष्ट पर उन्हें दया आ गई। और अपने क्रोध पर ग्लानि
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