Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 88
________________ अक्षय कोष मिल गया डब गए ?"-राजा की तीखी आवाज ने कपिल का ध्यान सहसा भंग कर दिया। ___ "हाँ, सोच लिया सम्राट् ! जो चाहिए था, वह मिल गया । अब न कुछ सोचना है, न कुछ माँगना है।" राजा ने चकित हो पूछा-"क्या सोचा तुमने ? और, क्या मिल गया ?" "राजन् ! ज्यों - ज्यों लाभ होता है, त्यों - त्यों लोभ बढ़ता है । लाभ और लोभ की दौड़ में अन्ततः लोभ ही आगे रहता है। मैंने यह दौड़ खत्म कर दी है। मैंने ऐसा लाभ पा लिया है, जो कभी लोभ से पराजित नहीं होता है। आत्मा का जो अनन्त वैभव और ऐश्वर्य मुझे मिला है, वह तुम्हारे राजकोष में कहाँ है ? इच्छा की ठोकरें खाता-खाता अब में उसका स्वामी बन गया हूँ। कुछ क्षण पहले का वह आशा का दास, अब आशा का सम्राट है। अस्तु, अब इसे कुछ नहीं चाहिए।" राजा प्रसेनजित कपिल के जीवन का यह अद्भुत परिवर्तन देख कर स्तब्ध रह गया। दया की जगह श्रद्धा जागृत हो गई। राजा कपिल के चरणों में झुक गया । तब तक कपिल ने खड़े खड़े ही अपना मुंडन (केश-लुचन) अपने ही हाथों से कर लिया था। सिर का ही मुडल नहीं, मन का भी मुंडन करके वह सच्चा त्यागी बन गया । लोभ से अलोभ की ओर, कामना से निष्कामना की ओर बढ़ गया। -उत्तराध्ययन, चूर्णि ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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