Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 86
________________ अक्षय कोष मिल गया राजा का हृदय पसीज उठा । सोचा - भूख और गरीबी का प्रतिकार राजदंड से नहीं किया जा सकता । समस्या के मूल को समझ कर उचित हल करना हो तो नीति है । राजा ने कहा - " ब्राह्मण ! तुम केवल दो मासा सोने के लिए आधी रात को घर से निकल पड़े ! दो मासा स्वर्ण से क्या होगा ? लो, तुम्हें जितना चाहिए- माँग लो !” उसे सहसा विश्वास नहीं आया । कहीं मेरी मूर्खता का मजाक तो नहीं हो रहा है ?" वह विचार में पड़ गया । ७७ राजा ने पुनः सम्बोधित किया- "ब्राह्मण कुमार ! सोचते क्या हो, जो चाहिए वह माँग लो, मैंने वचन दिया है ।" कपिल की विचार-धारा गहरी उतर गई । क्या मांगे ? दो मासा सोना ही माँग ले ? फिर क्या फायदा, आकाश से गिरा खजूर में अटक गया ? सौ स्वर्ण मुद्रा ? गृहस्थी बसानी जो है । कपड़े चाहिए, बर्तन चाहिए खाने-पीने की सामग्री चाहिए। तो, हजार स्वर्ण मुद्रा मांग लूं ? किन्तु, पत्नी के आभूषण किससे बनेंगे फिर ? लाख स्वर्ण मुद्रा के बिना तो कुछ भी नहीं होगा, न आभूषण और न मकान ? कपिल विचारों की उड़ान में बहुत दूर उड़ा जा रहा था । राजा ने उसकी विचार-तन्द्रा को झकझोरा - " युवक ! बहुत गहरे विचार में डूब गए ? जो मांगना है - शीघ्र माँगो, देखो -- विलम्ब हो रहा है ।" राजा को भय हुआ, कहीं मेरा राज्य ही न माँग बैठे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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