Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ अक्षय कोष मिल गया ७३ वस्त्र ही लाकर दो । हीरे मोती के हार नहीं दे सकते, तो फूलों के दो-चार गजरे ही खरीद सक्कू - इतने पैसे तो लाओ । नहीं तो हमजोली सखी-सहेलियों के बीच इस गिरी दशा में वन-क्रीड़ा को कैसे जाऊँगी ? अब तो मैं तुम्हारी हूँ । तुम्हें ही मेरा सबकुछ करना पड़ेगा ।" कपिल के पास क्या था ? वह तो भिक्षुक बनकर आया था, विद्यार्थी था । अन्न-वस्त्र की आवश्यकता शालिभद्र के घर से पूरी हो जाती थी और विद्याध्ययन की व्यवस्था उपाध्याय इन्द्रदत्त के यहाँ थी । दासी की बातों पर उसका मन गंभीर हो गया । वह कुछ बोल नहीं सका । दासी ने कहा- "चुप रहने से नहीं चलेगा । कुछ उद्यम करो । संसार बसाते हो, तो धन के बिना कैसे चलेगा ?" - " परन्तु मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नहीं है । धन लाऊँ, तो कहाँ से लाऊँ ?" कपिल ने चिन्तातुर होकर उत्तर दिया । दासी ने एक उपाय बताया- "धन प्राप्ति के सीधे उपाय दो हैं- भिक्षा या चोरी । ब्राह्मणपुत्र हो, भिक्षा माँगने में तुम्हें कोई संकोच नहीं । जानते ही हो, श्रावस्ती में एक धनदत्त नाम का सेठ है । प्रभात - वेला में सबसे पहले जाकर जो कोई उसे आशीर्वाद देता है, उसे वह दो मासा स्वर्ण दान करता है । तुम वहाँ जाओ। इतने से स्वर्ण से कम-सेकम वन महोत्सव की सामग्री तो आ ही जाएगी।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94