Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 77
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ परिणाम प्रतिक्षण उच्च-उच्चतर देव-गति के आयुष्य-बन्ध की निम्न भूमिकाओं को पार करता हुआ अच्युतकल्प (बारहवाँ स्वर्ग) तक चला गया है। जब घी नीचे गिरने लगा, तो तुम्हारे विचार दूषित होने लग गए और तुम देवगति की उच्च भूमिका से नीचे गिरने लगे, तभी मैंने तुम्हें लक्ष्य करके कहा-'नीचे मत गिर !' घी की ओर मेरा ध्यान तब भी नहीं था। मैं तो तुम्हारे चढ़ते - उतरते परिणामों को ही देख रहा था।" 'यक्ष' मुनि की ओर अपलक देखता रहा। मन में पश्चात्ताप की एक हल की-सी लहर उभरने लगी। मुनि ने बात आगे बढ़ाई-"जब मेरी बात पर तुम्हें रोष जग गया, और आक्रोश - पूर्वक व्यंग्य करते हुए तुमने कठोर वचन कहे, तब तो तुम्हारी आत्मा स्वर्ग के आयुष्य - बंध से तो क्या, सम्यग-दर्शन से भी पतित होकर पशु-योनि के आयुष्य का बन्ध करने की स्थिति में पहुंच गई थी। इसी स्थिति को लक्ष्य करके मैंने कहा-'तुम्हारा यह कार्य तो फोड़े पर फुन्सी जैसा हो रहा है।' श्रावक ! मेरे मन में रोष जैसा कुछ नहीं है । मैंने तो तुम्हारे मनोभावों का बिगड़ता चित्र देख कर ही सहज-भाव से यह बात कही थी।" मुनि के द्वारा मनोभावों का यथार्थ विश्लेषण सुना, तो 'यक्ष' का मन पश्चात्ताप से भर उठा। अपने आप पर उसे बहुत ग्लानि हुई । स्वर्ग से गिर कर पशु - योनि तक पहुंचने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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