Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 75
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ घी पात्र से बाहर बह निकला। मुनि का ध्यान अब भी नहीं टूटा । पर, यक्ष को बढ़ती हुई भाव-धारा टूट गई। वह सोचने लगा-"यह कैसा मुनि है ? पात्र भरने पर भी इसके मुह से 'बस' तक नहीं निकलता । यह कितना लोभी और प्रमादी है, ऐसे मुनि को दान देने से क्या लाभ ?" यक्ष की भाव-धारा को देखने की धुन में मुनि घी की धारा को अब तक देख नहीं पाए थे । घी बाहर बह रहा है, वह यह भी नहीं देख सके थे। परन्तु, जब यक्ष की ऊँची चढ़ती भावनाओं को नीचे गिरते हुए देखा, चिन्तन - मग्न अवस्था में ही सहसा बोल पड़े-"मत गिर ! मत गिर !" यक्ष को मुनि की उक्ति पर क्रोध आ गया। वह रोष को मन-ही-मन पी नहीं सका, फलतः क्षुब्ध स्वर बाहर में फूट ही पड़े- "कैसा पागल साधु है यह ? गिरते हुए घी को कहता है---मत गिर, मत गिर ! यों बोलने भर से जड़ घी कहीं नीचे गिरने से रुक सकता है ?" यक्ष के शब्द कानों से टकराए, तो मुनि का चिन्तन भंग हो गया। घी को पात्र से बाहर बहते देखा, तो खेद के साथ बोल उठे-"मिच्छामि दुक्कड" भूल हो गई, घी पात्र से बाहर बह निकला।" यक्ष को मुनि के इन शब्दों पर बड़ी झुझलाहट हुई। वह अपने उफनते हुए क्रोध पर संयम नहीं कर सका, बोल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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