Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 13
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ. कल्पना ही क्यों ? दूसरे विवाह की बात तो मेरे स्वप्न तक में न आएगी। क्या जीवन का उद्देश्य केवल भोग ही है, और कुछ नहीं ? जब तुम आजन्म ब्रह्मचर्य पाल सकती हो, तो मैं क्यों नहीं पाल सकता ? क्या पुरुष, नारी से दुर्बल है ?" विजया की आँखों में आश्चर्य चमक गया । उसने पति को बहुत कुछ समझाया, दूसरे विवाह के लिए, कृत्रिम नहीं वास्तविक आग्रह किया। परन्तु, विजय अपने निश्चय पर मन्दराचल की तरह अविचल भाव से स्थिर रहा। आखिर दोनों ने एक साथ अपना महान् सत्संकल्प दुहराया - "हम साथ रहते हुए भी आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे ।" वह रात कितनी पुनीत होगी, और वह घड़ी कितनी पवित्र होगी। जब दम्पती ने एक शय्या पर बैठकर प्रथमरात्रि में ही यह महान् सत्संकल्प किया था । अवश्य ही स्वर्ग के देवताओं ने धन्य धन्य कहकर उन्हें प्रणाम किया होगा ? उन्हें अपनी भावभरी श्रद्धांजलियाँ अर्पण की होंगी ? भाव-विभोर विजय ने विजया के मस्तक को ऊपर उठाते हुए एक और भीष्म प्रतिज्ञा की - " सुमुखी ! हमारा यह सत्संकल्प माता-पिता भी जानने न पाएँ । व्यर्थ में ही उन्हें क्यों चिन्ता-चक्र में डाला जाए ? हमारी साधना गुप्त ही रहनी चाहिए। और जिस दिन हमारी बात प्रकट हो जाएगी, हम दोनों संसार त्याग करके मुनि-धर्म की दीक्षा ले लेंगे। क्यों ठीक है न ?" पति की प्रतिज्ञा को पत्नी ने भी 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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