Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 60
________________ आखिर, प्रश्न समाधान पा गया "बेटा ! तेरे जन्म की क्या बात ? तब तो बहुत गीत गाये थे, इससे भी कहीं ज्यादा ! बहुत ज्यादा ! गीत ही नहीं, बाजे भी बजे और पूरे मोहल्ले में मिठाइयाँ बटी थीं ।" "माँ ! मन करता है, गीत सुनता ही रहूँ । तुम भी चलो, ऊपर !” "नहीं बेटा ! मुझे काम है । तुम जाओ और खूब मन भर कर गीत सुनो !” थावच्चा पुत्र ऊपर आया, तो और ही आवाज सुनकर उसका मन रुआँ - रुआँसा होने लगा | यह क्या, बड़ा भयावना-सा कोलाहल है, रुदन है । कानों में कांटों की तरह चुभन होने लगी । वह दौड़कर माँ के पास आया । "माँ क्या हुआ ? वे गीत जो इतने मीठे थे, अब बड़े असुहाने क्यों लग रहे हैं ? गीत क्या, कोलाहल - जैसा है, रुदन है !" ५१ माँ ने पुत्र का हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया । पड़ोसी के आकस्मिक दुःख और विलाप से उसकी आंखें भी गीली हो गईं। वह स्नेहिल हाथों से पुत्र का सिर सहलाने लगी । थावच्चा पुत्र ने माँ की आँखों में गरम गरम आँसू छलकते देखे, तो बोल पड़ा-- "अरी अम्मा ! यह क्या ? तुम रो क्यों रही हो ?" मैंने तो तुम से कुछ नहीं कहा, सिर्फ इतना ही तो पूछा - "पड़ोसी के घर पर ये गीत बदल क्यों गए ?" बालक की सहज अबोधता पर माँ का हृदय गद् गद् हो उठा - "बेटा, कुछ नहीं ! थोड़ी देर पहले ही पड़ोस के घर में जो पुत्र जन्म लेकर आया था, वह अब वापस हो गया ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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