Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 66
________________ ५७ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ लिए वह दौड़ रहा था, दुष्ट चोर ने उसके सिर को काट डाला । सेठ ने मन-ही-मन दुष्ट चिलातीपुत्र पर बहुत रोष खाया, पर अब करे, तो क्या करे ? वह शोक, क्रन्दन और विलाप करता हुआ सुषुमा के धड़ को लेकर वापस घर को लौट आया। इस घटना से उसका मन बहुत उदास और खिन्न हो गया। कुछ दिनों बाद उसने विरक्त होकर दीक्षा स्वीकार कर ली। ___ इधर चिलातीपुत्र भयभीत मनःस्थिति में सुषुमा का कटा हुआ सिर हाथ में लिए बहुत दूर निकल गया। कटे सिर से रक्त टपक रहा था। चिलातीपुत्र का एक तरह से समूचा शरीर रक्त-रञ्जित हो गया। उसने जंगल में इधरउधर भटकते हुए सघन वृक्ष के नीचे एक मुनि को ध्यान में खड़े देखा, तो बोला- "मुनि ! ठीक - ठीक बताओ, यहाँ क्या कर रहे हो ? क्या धर्म कर्म है तुम्हारा ? नहीं, तो इस नारी की तरह तुम्हारा सिर भी अभी धड़ से उड़ा देता हूँ।" मुनि ने उसके विकराल, भयंकर और क्रूर जीवन के पीछे भी धर्म-जिज्ञासा की एक हल्की - सी सौम्य रेखा उभरती देखी। उन्होंने शान्ति के साथ संक्षेप में उसे एक त्रिपदी का उपदेश दिया- 'उपशम, विवेक, संवर ।' और, उसके देखते-ही- देखते पक्षी की तरह आकाम में उड़ गए। चिलातीपुत्र आश्चर्य मूढ़ - सा बना कुछ समय तक आकाश की ओर देखता रहा। फिर सोचा- "मुनि ने यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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