Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 68
________________ - कहाँ से कहाँ ! करता-करता आत्म-लीन हो गया । मन की मोह-तन्द्रा टूट गई। उसने प्रतिज्ञा की-"जब तक स्त्री-हत्या का पाप मेरी आत्म-स्मृति को दबा रहा है, तब तक मैं यहीं कायोत्सर्ग करके खड़ा रहूँगा । न खाना, न पीना,न हिलना, न डुलना। आँख भी नहीं खोलना, पलक भी नहीं झपकाना !" कठोर संकल्प ने आत्म - शक्ति को जागृत कर दिया। क्र रकर्मा चिलातीपुत्र, साधु बनकर प्रस्तर प्रतिमा की तरह ध्यान में लीन होकर खड़ा हो गया। चींटियों ने काटा, हिंस्र - पशुओं ने त्रास दिया, कर पक्षियों ने चोंच मार - मार कर शरीर पर अनेक घाव कर दिए। पर, वह अन्तर् में अखण्ड समता लिए तीव-वेदनाओं के साथ जूझता रहा। मन प्रशांत था। धर्म की लौ जल रही थी । जीवन भर जो खून बहाता रहा, उसने धर्म - गंगा में एक ही डबकी लगाई, और परम पवित्र बन कर उभरा। उसने ध्यानावस्था में ही आयुष्य पूर्ण कर आठवें स्वर्ग में देवता के रूप में अवतार लिया।' -भत्त पईना (प्रकीर्णक) ८८; उपदेश प्रसाद १/१० --आख्यानक मणिकोश (आम्रदेवसूरि) १२/३७ ज्ञाता धर्मकथा सूत्र (१८) में इस कथा का उत्तरार्ध नहीं है। वहाँ चिलातीपुत्र सुषुमा का सिर लिए हुए जंगल में यों ही भूखप्यास से व्याकुल होकर भटकता हुआ मर जाता है । लगता है, कथा-प्रवाह धीरे-धीरे परिमार्जित एवं विकसित होता गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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