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धर्म का सार
२५ "मंत्री ने कहा- "मुनिवर ! इस धर्मसभा में एक समस्या चल रही है। आप भी इस पर श्लोक बना कर सुना सकते हैं ?"
क्षुल्लक साधु ने बड़े ही निर्भय स्वर में कहा-"महामात्य ! समस्या पूर्ति करना धर्मगुरुओं का काम नहीं, यह तो कवियों का काम है, आप नीतिज्ञ होकर भी यह बात कैसे भूल गए ?"
__ मंत्री ने अपनी भूल पर सिर झुका लिया। राजा क्षुल्लक मुनि के अद्भुत तेज पर विस्मित था । मुनि की स्पष्ट एवं निर्भीक उक्ति पर सभा में सन्नाटा छा गया। ऐसा लगा, जैसे यह छोटी-सी लाल मिर्च है, पर है बड़ी ही तेज और तीखी !
___ "हाँ महाराज ! आपका उपालंभ उचित है । किन्तु, फिर भो आज की यह सभा आपसे कुछ सुनने की आतुर है।" राजा और मंत्री ने एक साथ विनम्र आग्रह किया।
क्षुल्लक मुनि ने कहा- "अच्छा तो, लो मैं सुनाता हूँ-मुनि के मधुर कंठ से, श्लोक गूंज उठा
"खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स,
अज्झप्पजोगे गयमाणसस्स । किं मन्झ एएण विचितिएणं?
__ सकुण्डलं वा वयणं न वेत्ति ॥" -"क्षमा मेरे हृदय में बस गई है। मन मेरा काबू में है । इन्द्रियों को मैंने जीत लिया है। अपने आत्म-चिन्तन में
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