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रठा
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जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ गाथा की नोंक से गुदगुदा कर जग उठा। नर्तकी ने मुझ पर वह उपकार किया है कि बस, मेरा साधक जीवन पतित होते • होते बच गया। इसी प्रसन्नता में मैंने यह रत्न-कम्बल नर्तकी को दे डाला।"
क्षुल्लक मुनि की बात सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने राजकुमार से पूछा- "तुमने किस बात पर प्रसन्न होकर---अपना मणि-जटित कुण्डल दिया बेटा ?"
राजकुमार ने सिर झुकाया- "पिताजी ! दुष्टता क्षमा हो ! राय - लोभ के कारण मैं विष आदि के प्रयोग से आपको घात करके राजा बनने की धुन में था। नर्तकी ने मेरे मन के चोर को पकड़ लिया। मैंने सोचा-जीवन भर जिस पिता की सेवा की, अब बुढ़ापे में उसे यों मार डालना ठीक नहीं है । अब तो पिताजी बूढ़े हो गए हैं, थोड़े दिनों के और मेहमान हैं। इस थोड़े-से के लिए इतना बड़ा कलंक का टीका सिर पर क्यों लगाऊँ ? इस विचार ने मेरे मन के पाप को धो डाला, प्रत्युपकार स्वरूप नर्तकी को मैंने अपने रत्नजटित कुण्डल उतार कर दे दिए।"
राजकुमार की बात सुनी तो राजा का हृदय आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता से तरंगित हो उठा । एक ओर खड़ी कुल. वध से राजा ने पूछा-"पुत्री ! तुमने किस बात पर अपना अमूल्य रत्नहार दे डाला ?"
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