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दीप से दीप जले
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आश्चर्य हुआ। उसने सर्व - प्रथम क्षुल्लक मुनि की ओर व्यंग-भरी दृष्टि डाली- "मुनिवर ! नृत्य - गीत पर इतने मुग्ध हुए कि एक लाख मुद्राओं का रत्न कम्बल नर्तकी को पुरस्कार (तुष्टि दान) में दे डाला ?"
"राजन् ! नर्तकी की इस गाथा से जो प्रतिबोध मिला है, उसकी तुलना में यह रत्न कंबल कुछ भी नहीं।" ___ "हाँ, ऐसा ! क्या बोध मिला, जरा सुनें तो सही ?" राजा ने एक तीखे हास्य के साथ मुनि के मुख को ओर देखा!
मुनि ने कहा--"राजन् ! मैं भी एक राजकुमार हूँ ! दीर्घकाल तक संयम की कठोर साधना करता रहा, किन्तु मन विषय-भोगों की ओर दौड़ता ही रहा, रोकनेपर भी वह नहीं रुका, तो गृहस्थ - आश्रम की ओर चल पड़ा । साधु के व्रत और नियमों का परित्याग कर मैं घर की ओर जा ही रहा था कि मार्ग में आपके इस नृत्य में मन उलझ गया। रात भर खड़ा - खड़ा यह नृत्य देखता रहा । अभी जब उस बूढ़ी नर्तकी ने यह गाथा सुनाई, तो ऐसा लगा, जैसे किसी ने नींद में सोये मुझको झकझोर दिया हो । उसका यह पद
"अणुपालिय दीहराइयं, उसुमिणं ते मा पमायए !" "दीर्घकाल तक जिस पथ का अनुसरण किया, अब थोड़ेसे के लिए उसे छोड़कर प्रमत्त न बन"-मुझे जगा गया । माँ, गुरुनी, उपाध्याय और आचार्य के अड़तालीस वर्ष के निरन्तर सहवास और उपदेश से जो मन नहीं जगा, वह सहसा ही इस
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