Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 56
________________ दीप से दीप जले ४७ लज्जावश कुल-वधू की आँखें नीचे झुक गईं-"महाराज ! क्या कहूँ, बारह वर्ष से परदेश गए पति के विरह में आकुल हुई तड़प रही हूँ। अब तक धैर्य के साथ किसी तरह अपने कुल-धर्म का पालन किया । पर, आज इस रागरंग के मादक वातावरण में मेरे धैर्य का बांध टूट ही गया और मैं अपने कुल-धर्म की मर्यादा तोड़ने पर उतारू हो गई । किन्तु नर्तकी की गाथा ने मेरे गिरते हुए मनोबल को सहारा दे दिया, मैं पतित होने से बच गई। बारह वर्ष तक जब इंतजार की, तो अब थोड़े दिन और रहे हैं, पति की राह देखनी चाहिए । क्षणिक भावावेश के करण यों कुल कलंकित क्यों करूं ?"- इस प्रकार मैंने नर्तकी का उपकार माना और उसके प्रतिदान में यह हार दे दिया। कुल-वधु की बात पूरी हुई तो राजा ने मंत्री की ओर सहास्य देखा- “मंत्रीवर ! आपने किस बातपर प्रसन्न होकर हीरे की अंगूठी नर्तकी को दे दी !" मंत्री ने हाथ जोड़कर कहा- "अपराध क्षमा हो । मैं जीवन की सान्ध्य-वेला में अपने राज-धर्म से भ्रष्ट हो रहा था। आपके सीमावर्ती शत्रु राजाओं द्वारा दिए गए प्रलोभन के कारण मैं अब आपके साथ भयंकर धोखा करने वाला था। पर, नर्तकी की गाथा सुनते ही मेरी भटकी हुई चेतना सत्पथ पर लौट आई । जीवन भर वफादारी से जिस राज-धर्म का पालन किया, अब थोड़े-से जीवन के लिए उसको त्याग देने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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