Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 47
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएं की मंडली में एक किनारे बैठे कर • गडुक मुनि को आदर एवं भक्ति पूर्वक नमस्कार किया। शासनदेवी का यह व्यवहार तपस्वी मुनियों को अखर गया। उन्होंने कहा-"देवानुप्रिये ! तुम देवी होकर भी भ्रम में पड़ गई हो, जो कि घोर एवं दीर्घ तपस्वियों को छोड़कर उस नित्य-भोजी कूर-गडुक को वन्दना कर रही हो?" शासन देवी ने कहा- "भन्ते ! मैं भ्रम में नहीं है। मैंने घोर तपस्वी को ही वन्दना की है । कूर - गडुक मुनि भाव तपस्वी है, क्षमा तप की दीर्घ आराधना से उसकी आत्मा परम पवित्र एवं निर्मल हो चुकी है। देखना, आज से सातवें दिन वह केवलज्ञान की महान् सिद्धि कैसे प्राप्त करता है ?" तपस्वी मुनि देवी की बात पर चकित रह गए । किन्तु फिर भी उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि "नित्य भोजन करने वाले की आत्मा हमारे से अधिक पवित्र कैसे हो सकती है?" कूर-गडुक देवी के भक्ति-भाव पूर्वक वन्दन और प्रशंसा करने पर भी उतना ही शान्त और अनपेक्ष रहा, जितना कि 'नित्य भोजी' और 'भोजनभट्ट' कह कर उपहास करनेवालों के प्रति रह रहा था। आज सातवें दिन पर्व - दिन था, प्रायः सभी छोटे-बड़े मुनिजनों को स्पवास था। किन्तु कूर-गडुक आज भी अपनी असह्य क्षुधा वेदनीय के कारण उपवास नहीं कर सका । गुरु की आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए गया। भिक्षा में जो कुछ शुद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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