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दीप जलता रहा
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ध्यान में लीन होकर उच्च-उच्चतर भाव - श्रेणी में चढ़ता गया । ज्ञान-चेतना का दिव्य प्रकाश जगमगाता रहा। . दोनों ओर संकल्प की होड़ लगी थी। दासी ने जंभाइयाँ लेते हुए भी बाहर का दीपक बुझने नहीं दिया। राजा का सुकुमार शरीर खड़े-खड़े अकड़ गया था, रोम-रोम दुखने लग गया था, पर उसके ध्यान का तार टूटने न पाया। भीतर का दीपक जो जला, तो फिर बुझा ही नहीं।
प्रात:काल का स्वर्णिम प्रकाश धरती पर बिखरा । दासी ने दीपक को गुळ किया। पर, राजा का अन्तर्-दीपक एक बार जो जल उठा, वह कैसे गुल होता ? वह तो जलता ही रहा । खड़े-खड़े पाँव सूज गए, रक्त-संचार क्षीण होने से शरीर शून्य हो गया और अन्ततः ध्यान में तल्लीन राजा की देह भूमि पर मूछित होकर गिर पड़ी। मृत्यु - क्षण की मूर्छा में भी उसका अन्तर्-दीप नहीं बुझा, सो नहीं बुझा । शरीर छुट गया, पर वह अखण्ड ज्योति तो जलती ही रही। वह दीप, जो एक बार जला था, जलता ही रहा ।
-मरणसमाधि प्रकीर्णक -आख्यानक मणि कोश (आम्रदेव सूरि) ४१/१२६
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