Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ दीप जलता रहा ३५ ध्यान में लीन होकर उच्च-उच्चतर भाव - श्रेणी में चढ़ता गया । ज्ञान-चेतना का दिव्य प्रकाश जगमगाता रहा। . दोनों ओर संकल्प की होड़ लगी थी। दासी ने जंभाइयाँ लेते हुए भी बाहर का दीपक बुझने नहीं दिया। राजा का सुकुमार शरीर खड़े-खड़े अकड़ गया था, रोम-रोम दुखने लग गया था, पर उसके ध्यान का तार टूटने न पाया। भीतर का दीपक जो जला, तो फिर बुझा ही नहीं। प्रात:काल का स्वर्णिम प्रकाश धरती पर बिखरा । दासी ने दीपक को गुळ किया। पर, राजा का अन्तर्-दीपक एक बार जो जल उठा, वह कैसे गुल होता ? वह तो जलता ही रहा । खड़े-खड़े पाँव सूज गए, रक्त-संचार क्षीण होने से शरीर शून्य हो गया और अन्ततः ध्यान में तल्लीन राजा की देह भूमि पर मूछित होकर गिर पड़ी। मृत्यु - क्षण की मूर्छा में भी उसका अन्तर्-दीप नहीं बुझा, सो नहीं बुझा । शरीर छुट गया, पर वह अखण्ड ज्योति तो जलती ही रही। वह दीप, जो एक बार जला था, जलता ही रहा । -मरणसमाधि प्रकीर्णक -आख्यानक मणि कोश (आम्रदेव सूरि) ४१/१२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94