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जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ
"जब तक यह दीपक जलता रहेगा, मैं अपना ध्यान चालू रखूँगा ।"
दो घड़ी बीत गई, चार घड़ी गुजर गई । दीपक टिमटिमाने लगा, बुझने की स्थिति में आया । स्वामी भक्त दासी ने देखा, तो सोचा कि दीपक गुल न हो जाए, महाराज ध्यान किए खड़े हैं ? वह आई, और तेल डाल गई । लो फिर तेज हो उठी । महाराज के अन्त में भी ध्यान कीलो तीव्र हो गई । बाहर के दीपक के साथ - साथ राजा के मन का अन्तर् - दीपक भी जलता रहा, प्रकाश तीव्र से तीव्रतर होता रहा ।
एक प्रहर रात्रि बीत गई । दासी ने सोचा- "आज महाराज का ध्यान बहुत लम्बा चल रहा है, अतः कहीं अँधेरा न हो जाए !" दीपक का तेल समाप्त होने से पहले ही उसने पुनः तेल डाल दिया ।
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राजा का ध्यान लम्बा होता चला गया । दासी की स्वामी - भक्ति पर राजा प्रसन्न था कि "यह आज सच्ची भक्ति कर रही है । मेरे ध्यान की अखण्ड लो को बुझने नहीं देना चाहती, धन्य है इसकी स्वामि भक्ति को ।"
रात बीतती गई, दीपक जलता रहा । जब-जब दीपक टिमटिमाने लगता, दासी हाथ में तेल - पात्र लिए तैयार रहती, दीपक में तेल उंडेल देती । यों रात भर तेल डलता रहा, दीपक जलता रहा । राजा की अन्तश्चेतना प्रबुद्ध हो गई । आत्मा का अखण्ड नन्दादीप भी जलता रहा । राजा
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