Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 32
________________ धर्म का सार २३ मुख को ठीक तरह नहीं देख पाया। अतः इस श्लोक में भोग से विरक्ति जैसो कोई ध्वनि नहीं है। राजा और मंत्री का गम्भीर मौन स्पष्ट सूचित कर रहा था कि उन्हें जो जीवन-दर्शन चाहिए था, वह इन धर्म गुरुओं द्वारा की गई समस्या पूर्ति में नहीं मिल रहा है। तभी एक धर्माचार्य सभामंच पर आए। सभासदों पर प्रेमल दृष्टि डालते हुए उन्होंने अपनी मधुर स्वर-लहरी वायुमण्डल में गुजित की"मालाविहारे मइ अज्ज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी । विक्खित्तचित्तेण न सुटठु नायं, सकुडलं वा वयणं न बेत्ति ॥" - "माला - विहार में आज मैंने एक उपासिका को देखा। उसका शरीर सुन्दर वस्त्र और स्वर्णाभरणों से मंडित था। मेरा चित्त उसके रूप-दर्शन से इतना व्याकुल हो गया कि मैं ठीक तरह जान ही नहीं पाया-उसका मुख कुण्डल सहित है या नहीं ?" इस प्रकार सभा - मंच पर अनेक धर्म - गुरु आए और श्लोक सुनाकर अपने-अपने आसनों पर जा बैठे। राजा ने देखा- "सबकी भावना का प्रवाह नारी के क्षणिक सौन्दर्य में बह रहा है । कोई उसकी कमल-सी आँखें देखकर चकित होता है, तो कोई उसके कांचन-भूषित अंग पर मुग्ध होकर देखता-का-देखता ही रह जाता है । लगता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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