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तीन गाथाएँ
राजा यवराज जीवन के संध्या काल में संसार से विरक्त होकर सद्गुरु आचार्य के पास दीक्षित हो गए । जव मन में वैराग्य जग पड़ा, तो विशाला का विशाल राजवैभव भी उनके बढ़ते चरणों को रोक नहीं सका । राजकुमार गर्द्ध - भिल्ल अभी बालक था, और उससे छोटी थी राजकुमारी अणुल्लिका | इसलिए राज्यभार महामात्य दीर्घपृष्ठ के कंधों पर था । राज्य-सूत्र का संचालन वही करता था ।
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राजर्षि के मन में संयम साधना के प्रति हार्दिक उत्साह था। सेवा और वैयावृत्य के अवसर पर भी वे किसी से पीछे नहीं रहते थे । पर, जब शास्त्राध्ययन का प्रसंग आता, तो अपनी ढलती अवस्था को देख कर निरुत्साह हो जाते । उत्साह ही तो मनुष्य को आगे बढ़ाता है । और, जब वही क्षीण हो जाए, तो फिर प्रगति शून्य में भटक कर रह जाती
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है । आचार्य राजर्षि को बार-बार अध्ययन की प्रेरणा देते रहते । ज्ञान का महत्त्व समझाते, अभ्यास करने के लिए उत्साहित करते । किन्तु, राजर्षि यह कहकर टाल देते कि
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