Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ तीन गाथाएँ १५ बड़े से छेद में से राजकुमार ने अन्दर में झाँक कर देखा, तो राजर्षि बैठे कुछ गुन-गुना रहे थे । राजकुमार सहम गया । मुनि के मुँह से प्रथम गाथा का घोष सुना, तो उसे लगा - "राजर्षि ने मुझे देख लिया है । मालूम होता है, मेरे अभिप्राय को समझ गए हैं । राजकुमार के पाँव वहीं ठिठक गए। मुनि ने वही गाथा फिर दुहराई "ओहावसि पहावसि ममं चेव निरक्खसि । लक्खिओ ते अभिप्पाओ, जवं भक्खसि गद्दहा !" राजकुमार ने सोचा-सच ही मुनि मुझे सम्बोधित करके ही कह रहे हैं- " गदहा (गर्द भिल्ल !) तू इधर-उधर घूम रहा है, मुझको बार- बार देख रहा है । मैं समझ गया - तू यव ( यव राजर्षि) को खा जाना चाहता है ।" राजकुमार के हाथ की तलवार नीचे झुक गई । सोचा" राजर्षि ज्ञानी हैं । मेरा अभिप्राय जान चुके हैं । पर देखता हूँ, मेरे मन के अन्दर की ( बहन के खो जाने की ) चिन्ता - ग्रन्थि को खोल सकते हैं या नहीं ?" तभी मुनि ने दूसरी गाथा दुहराई - जोइज्जती न दीसई । "इओ गया, तओ गया, अम्हे न दिट्टा तुम्हे न दिट्ठा, अगड़े छूढ़ा अणुल्लिया । " - इधर से गई, उधर से गई । अणुल्लिया (राजकन्या) न तुम्हें दिखाई दी, न मुझे ही । किन्तु मालुम होता है - वह अगड़ ( तहखाने ) में पड़ी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94