Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 23
________________ जैन इतिहास की प्रेरक कथाएँ ...........तो क्या राजर्षि की हत्या"... राजकुमार चौंक पड़ा । मन्त्री ने गम्भीर होकर कहा - "राजधर्म तो यही कहता है । अन्यथा पितृधर्म का पालन करना हो, तो राज छोड़कर संन्यास ले लीजिए, और राज सिंहासन पिताजी को सौंप दीजिए ।" १४ - "नहीं, यह तो नहीं हो सकता ! और इधर पितृ-हत्या" ऋषि हत्या ! यह भी कैसे सम्भव हो सकता है ?" । "महाराज ! जो ऋषि संसार के भोगों को ठुकरा कर पुनः उन्हीं के दलदल में फँसना चाहे, वह कैसा ऋषि ? और पिता पुत्र को राजा बनाकर पुनः उसे सेवक बनाने के लिए प्रयत्न करे, वह कैसा पिता ?" आप अपना राज-धर्म भूल रहे हैं। राजनीति में न कोई पिता है, न पुत्र न कोई वन्धु है, न मित्र ! सर्वोपरि अपनी सत्ता की रक्षा है राज सत्ता की रक्षा के लिए जो कुछ भी करना पड़े, वह सब राज-धर्म है ।" मन्त्री की बात पर राजकुमार चुप था । कुछ क्षण कर्तव्यविमूढ़-सा सोचता रहा और फिर एकदम हाथ में तलवार लेकर खड़ा हो गया । "अच्छा, आप जाइए, मैं हर मूल्य पर अपने राज-धर्म की रक्षा करूँगा ।" मन्त्री का तीर ठीक निशाने पर लगा । राजकुमार अंधेरी रात में अकेला हाथ में तलवार लिए चल पड़ा-पिता की हत्या करने ! एक ऋषि का खून करने ! कुंभकार के घर के बाहर राजकुमार दबे पाँव इधरउधर घूमने लगा । भीतर से कुछ आवाज आ रही थी। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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