Book Title: Jain Itihas ki Prerak Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ ब्रह्मचारी दम्पती बिजया ने कहा - " स्वामी ! सिर्फ तीन दिन ही नहीं, पूरा जीवन ही बाकी रह गया है। अपने दाम्पत्य-जीवन के बीच नियम की एक अभेद्य दीवार खड़ी हो गई है । मैंने भी बचपन में कृष्णपक्ष के लिए सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य स्वीकार किया था । अतः आपसे अनुरोध करतो हूँ कि आप किसी दूसरी श्रेष्ठी कन्या के साथ विवाह कर लीजिए, ताकि आपके माता - पिता की वंश परम्परा आगे चल सके, और आप गृहस्थ - जीवन का आनन्द उठा सकें । मैं आपकी दासी हूँ, मेरी चिन्ता न करिए। मैं अपना समग्र जीवन आपके चरणों में बैठकर आनन्दपूर्वक बिता दूंगी, पर आपको मैं ऐसे नहीं देख सकती । आप पुरुष हैं, दूसरा विवाह कर सकते हैं ।" बात सुनते ही विजय स्तम्भित-सा रह गया । जीवन की समूची कल्पनाएँ, भावनाएँ ही मोड़ खा गई । इस विचित्र संयोग पर उसे रह रहकर आश्चर्य होने लगा । कुछ क्षण दोनों ओर मौन छागया । दोनों की दृष्टि में, समुद्र की लहरों की तरह भविष्य के अथाह प्रश्न, एक के बाद एक उठकर आ - 1 - रहे थे । विजय ने मौन को तोड़ते हुए कहा - "भद्र े ! कभीकभी अनायास ही शुभ संयोग मिल जाता है । सौभाग्य से हमें आजन्म पवित्र ब्रह्मचर्य व्रत पालने का जो शुभ अवसर मिला है, उसे हम हाथ से यों ही कैसे खो दें ? जीवन शुद्धि की सच्ची साधना करते हुए हम दोनों सदा साथ रहेंगे । हमारा हृदय एक है, लक्ष्य एक है, फिर अलग - अलग दो पंथों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94