Book Title: Jain Itihas ki Prasiddh Kathaye
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 18
________________ जीवन-दृष्टि तीर्थंकर महावीर राजगृह के गुणशील उपवन के समवसरण में विराजमान थे। विशाल परिषद् में जहाँ सम्राट् श्रेणिक, महामंत्री अभयकुमार आदि अभिजात्य वर्ग के यशस्वी जन भगवान् महावीर के धर्म देशना, धर्म - उपदेश सुन रहे थे, वहाँ एक ओर राजगृह का क्रूर 'कालशौकरिक' ( कसाई ) भी मन में कौतूहल लिये बैठा था । शान्ति और समता की उपदेश धारा बह रही थी कि अचानक एक वृद्ध पुरुष जर्जर शरीर, कुष्ठ रोगी। फटे-पुराने चिथड़ों में लिपटा लकड़ी के सहारे सभा को चीरता हुआ आगे आया । सम्राट् की ओर अभिमुख होकर बोला- 'सम्राट्, जीते रहो !' सबकी आँखें इस विचित्र बुड्ढे पर गड़ गई। कैसा असभ्य और ढीट है ? खुशामदी कहीं का। भगवान को वन्दन न करके राजा को आशीर्वाद दे रहा है ?' तभी वृद्ध पुरुष ने भगवान् महावीर की ओर मुंह किया- "तुम मर जाओ ।" अब तो सारी परिषद् के रोंगटे खड़े हो गए। सम्राट् की भौंहें भी तन गई । किन्तु, यह तो तीर्थंकर की धर्म-सभा है, राजा और रंक समान हैं यहाँ ! राजा को भी किसी को रोक-टोक करने का कोई अधिकार नहीं है यहाँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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